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ग्यारहवाँ स्तबक
२०९ बीच 'वाच्यवाचक' नामवाला सम्बन्ध रहता है और इसका कारण यह है (ख के पाठानुसार : यही कारण है) कि यह शब्द इस अर्थ की प्रतीति आदि कराता
नैतद् दृश्यविकल्प्यथैकीकरणेन' भेदतः । एकप्रमात्रभावाच्च तयोस्तत्त्वाप्रसिद्धितः ॥६५३॥
यह भी नहीं कहा जा सकता कि एक शब्द से उसके अर्थ की प्रतीति इसलिए होती है कि हम यहाँ एक दर्शनविषयभूत पदार्थ को विकल्पविषयभूत पदार्थ से अभिन्न मान बैठते हैं : यह इसलिए कि जब प्रस्तुतवादी के मतानुसार दर्शनविषयभूत पदार्थ विकल्पविषयभूत पदार्थो से भिन्न ही हुआ करते हैं तब उन्हें परस्पर अभिन्न रूप में देख पाना किसी के लिए संभव नहीं ही होना चाहिए, इसलिए भी कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार उक्त दर्शन तथा विकल्प एक ही प्रमाता के अनुभव नहीं हो सकते ।
टिप्पणी-बौद्ध का कहना है कि एक वस्तु-जो अनिवार्यतः दूसरी प्रत्येक वस्तु से भिन्न, क्षणिक तथा शब्दअगोचर होती है हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान कातथा उसीका ही-विषय बनती है जबकि हमारे विकल्पात्मक (ऊहापोहात्मक) ज्ञान का विषय जो शब्दगोचर हुआ करता है—कुछ और ही होता है; ऐसी दशा में किसी का यह कहना कि विवल्पात्मक ज्ञान का विषय वस्तुरूप हुआ करता है प्रत्यक्षज्ञान के विषय का विकल्पात्मक ज्ञान के विषय के साथ घोटाला करना है। इस पर हरिभद्र की आपत्ति है कि जब इन दोनों के विषय आपस में इतने भिन्न हैं तो कोई इनका एक दूसरे के साथ घोटाला कर ही कैसे सकता है । दूसरे, जब क्षणिकवादी प्रत्येक दूसरी वस्तु की भाँति ज्ञाता मन को भी क्षणिक मानता है तब उसे यह भी मानना पड़ेगा कि जिस मन को प्रत्यक्षज्ञान हुआ वह उस मन से भिन्न होता है जिसे विकल्पात्मक ज्ञान हुआ; और तब हरिभद्र की आपत्ति है कि क को होनेवाले ज्ञान के विषय का घोटाला ख को होनेवाले ज्ञान के विषय के साथ नहीं हो सकता ।
शब्दात् तद्वासनाबोधो विकल्पस्य ततो हि यत् । तदित्थमुच्यतेऽस्माभिर्न ततस्तदसिद्धितः ॥६५४॥ कहा जा सकता है कि एक दर्शनविषयभूत पदार्थ को एक विकल्प
१. क का पाठ : “विकल्पार्थे ।
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