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शास्त्रवार्तासमुच्चय खण्डन प्रारम्भ करते हैं जिन्हें किन्हीं बौद्ध दार्शनिकों द्वारा-उदाहरण के लिए, धर्मकीर्ति द्वारा उपस्थित किया गया था ।
अयमेवं न वेत्यन्यदोषो निर्दोषताऽपि वा । दुर्लभत्वात् प्रमाणानां दुर्बोधेत्यपरे विदुः ॥६२८॥
कुछ दूसरे वादियों का (तथा पूर्वोक्त वादियों का भी) कहना है कि एक व्यक्ति के सम्बन्ध में यह निर्णय कर पाना कि वह सर्वज्ञ है अथवा नहीं, निर्दोष है अथवा सदोष हमारे लिए कठिन है और वह इसलिए कि इस सम्बन्ध में कोई प्रमाण पाना हमारे लिए कठिन है ।
अत्रापि ब्रुवते वृद्धाः सिद्धमव्यभिचार्यपि । लोके गुणादिविज्ञानं सामान्येन महात्मनाम् ॥६२९।। तन्नीतिप्रतिपत्त्यादेरन्यथा तन्न युक्तिमत् । विशेषज्ञानमप्येवं तद्वदभ्यासतों न किम् ॥६३०॥
इस संबन्ध में भी अनुभवी वादियों का कहना है कि बुद्धिमान् लोग दूसरों के गुणदोष के संबंध में असन्दिग्ध जानकारी सामान्य रूप से कर पाते हैं यह बात लोकसिद्ध है । उदाहरण के लिए, एक प्रामाणिक व्यक्ति के न्याय का (अर्थात् उसके चले रास्ते का) अनुसरण हम इसलिए करते हैं कि हम उस व्यक्ति को सामान्य रूप से प्रामाणिक मानते हैं; यदि ऐसा न हो तो हमारा उस व्यक्ति के न्याय का अनुसरण करना युक्तिसंगत नहीं । जब बात ऐसी है तब दूसरों के गुणदोष के संबंध में विशेष जानकारी भी हमारे लिए अभ्यास द्वारा संभव क्यों न हो ?
दोषाणां हासदृष्टेयह तत्सर्वक्षयसंभवात् ।
तत्सिद्धौ ज्ञायते प्राज्ञैस्तस्यातिशय इत्यपि ॥६३१॥
एक व्यक्ति में दोषों का कम होते जाना हम देखते ही हैं और इसलिए एक व्यक्ति में दोषों का सर्वथा नष्ट होना एक संभव घटना सिद्ध होती है; ऐसी दशा में बुद्धिमानों को यह पता चल ही गया कि एक व्यक्ति में असाधारण विशेषता (अर्थात् सर्वज्ञता) कैसे आती है ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि चरित्रदोषों की न्यूनाधिक क्षीणता हमारे निकट एक अनुभवगोचर बात है जबकि इस अनुभव के आधार
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