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________________ १९८ शास्त्रवार्तासमुच्चय दूसरे, हरिभद्र यहाँ इस तथ्य की ओर इंगित कर रहे हैं कि कुछ विचारकों के मतानुसार वेद के उन उन भागों के कर्ता अष्टक, वामक आदि व्यक्ति स्वकृताध्ययनस्यापि तद्भावो न विरुध्यते । गौरवापादनार्थं च तथा स्यादनिवेदनम् ॥६२२॥ फिर एक व्यक्ति द्वारा किसी स्वरचित कृति के अध्ययन किये जाने को भी अध्ययन किया जाना कहना तो अनुचित नहीं (यद्यपि ऐसे अध्ययन के संबन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत अध्येता के गुरु ने वैसा अध्ययन पहले से कर रखा होगा); और यदि कोई व्यक्ति किसी स्वरचित कृति का स्वरचित कृति के रूप में उल्लेख न करे तो इसका कारण यह भी हो सकता है कि वह व्यक्ति अपनी कृति का गौरव बढ़ाना चाह रहा है। टिप्पणी-मीमांसक का एक तर्क है कि वेद नित्य हैं क्योंकि कोई व्यक्ति वेद का अध्ययन तभी कर सकता है जब उसके गुरु ने यह अध्ययन पहले कर रखा हो, (कहने का आशय यह है कि वेदाध्ययन की गुरुशिष्यपरंपरा का अनादि होना अनिवार्य है) । इस पर हरिभद्र का उत्तर है कि मीमांसक का यह तर्क एक नवरचित ग्रंथ पर लागू नहीं होता । [वस्तुतः मीमांसक का यह कहना भी नहीं कि उसका तर्क वेद के अतिरिक्त किसी ग्रंथ पर लागू होता है।] मीमांसक के जिस दूसरे प्रश्न का उत्तर हरिभद्र प्रस्तुत कारिका में दे रहे हैं वह यह है कि यदि कोई ग्रंथ किसी कर्ता की कृति सचमुच है तो वह कर्ता अपने नाम का उल्लेख इस कृति में क्यों नहीं करेगा । मन्त्रादीनां च सामर्थ्य शाबराणामपि स्फुटम् । प्रतीतं सर्वलोकेऽपि न चाप्यव्यभिचारि तत् ॥६२३॥ और शाबर मन्त्र आदि (जो पुरुषकृत हैं) उन उन फलों को देने में समर्थ सिद्ध होते हैं यह बात सभी लोंगों को स्पष्ट प्रतीत होती हैं; दूसरी और वेदमंत्रों की सफलता भी निरपवाद नहीं । टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र मीमांसक के इस तर्क का खंडन कर रहे हैं कि वेद अपौरुषेय हैं क्योंकि वेदमन्त्र उन उन फलों को दिलाने में समर्थ होते हैं । शाबर मन्त्र हरिभद्र के समय में प्रसिद्ध कोई ऐसे मन्त्र रहे होंगे जिनके कर्ता का नाम भी प्रसिद्ध रहा होगा, (अथवा 'शाबर' शब्द का अर्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002647
Book TitleSastravartasamucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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