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शास्त्रवार्तासमुच्चय
दृश्यमानेऽपि चाशङ्काऽदृश्यकर्तृसमुद्भवा ।
नातीन्द्रियार्थद्रष्टारमन्तरेण निवर्तते ॥६१६॥
दूसरे, यदि कोई वाक्य वक्ता के अभाव में भी सुन लिया जाए तो भी एक अतीन्द्रिय पदार्थों को देख सकनेवाले व्यक्ति की सहायता बिना इस शंका का निवारण नहीं हो सकता कि इस वाक्य का वक्ता कोई अदृश्य व्यक्ति तो नहीं ।
पापादत्रेदृशी बुद्धिर्न पुण्यादिति न प्रमा ।। न लोको हि विगानत्वात् तद्बहुत्वाद्यनिश्चितेः ॥६१७॥
कहा जा सकता है कि वेदवाक्यों के संबन्ध में उक्त प्रकार की शंका पापवश होती है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि यह शंका पुण्यवश नहीं इस बात के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं । कहा जा सकता है कि उक्त बात के पक्ष में लोकमत प्रमाण है, लेकिन इसपर हमारा उत्तर है कि कुछ लोग तो उक्त बात को मानने से इनकार करते हैं, और यह अभी निश्चय नहीं कि उक्त बात को मानने वाले लोग बहुमत में हैं तथा उससे इनकार करने वाले अल्पमत में।
बहूनामपि संमोहभावान्मिथ्याप्रवर्तनात् ।।
मानसंख्याविरोधाच्च कथमित्थमिदं ननु ॥६१८॥
फिर लोगों का बहुमत भी मोहवश गलत रास्ते पर चल सकता है । दूसरे, प्रस्तुत वादी द्वारा लोकमत को प्रमाण माने जाने का अर्थ होगा अपने ही द्वारा स्वीकृत प्रमाणसंख्या के विरुद्ध जाना । ऐसी दशा में प्रस्तुत वादी यह सब कैसे कर सकता है (अर्थात् वह अपने पक्ष के समर्थन में लोकमत की दुहाई कैसे दे सकता है) ?
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि मीमांसक के मतानुसार 'लोकमत' कोई स्वतंत्र प्रमाण तो नहीं ।
अतीन्द्रियार्थद्रष्टा तु पुमान् कश्चिद् यदीष्यते । संभवद्विषयाऽपि स्यादेवंभूतार्थकल्पना ॥६१९॥
यदि प्रस्तुत वादी यह मान ले कि अतीन्द्रिय पदार्थों का देख सकना किसी व्यक्तिविशेष के लिए संभव है तब उसका उपरोक्त प्रकार से बात करना भी कुछ अर्थ रख सकेगा (अर्थात् उसका यह कहना कि वेद-वाक्यों के संबन्ध
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