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दसवाँ स्तबक
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तन्निवृत्तौ च नोपायो विनाऽतीन्द्रियवेदिनम् । एवं च कृत्वा साध्वेतत् कीर्तितं धर्मकीर्तिना ॥६०३॥
और उक्त शंका के निवारण का एक अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञाता व्यक्ति को छोड़कर कोई दूसरा उपाय नहीं; यही सब कुछ ध्यान में रखते हुए धर्मकीर्ति ने निम्नलिखित बात ठीक ही कही है :
स्वयं रागादिमान्नार्थं वेत्ति वेदस्य नान्यतः ।
न वेदयति वेदोऽपि वेदार्थस्य गतिः कुतः ॥६०४॥
"राग आदि मनोदोषों से युक्त एक व्यक्ति वेद का अर्थ न तो स्वयं जान सकता है न किसी दूसरे व्यक्ति की सहायता से; और न ही वेद अपने अर्थ का ज्ञान स्वयं कराता है। तब प्रश्न उठता है कि वेद का अर्थ कैसे जाना जाए ।
तेनाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ ।
खादेत् श्वमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रमा ॥६०५॥
ऐसी दशा में जब वेद कहता है कि स्वर्ग की इच्छा करनेवाले व्यक्ति को अग्निहोत्र नामवाला हवन करना चाहिए' तब इस पक्ष के समर्थन में क्या प्रमाण कि इस वेदवाक्य का अर्थ यह नहीं कि '(स्वर्ग की इच्छा करनेवाले व्यक्ति को) कुत्ते का मांस खाना चाहिए' ?"
प्रदीपादिवदिष्टश्चेत्तच्छब्दोऽर्थप्रकाशकः । स्वत एव प्रमाणं न किञ्चिदत्रापि विद्यते ॥६०६॥
कहा जा सकता है कि एक वैदिक वाक्य अपने अर्थ की अभिव्यक्ति उसी प्रकारं स्वयं करता है जैसे एक दीपक (अपने प्रकाश में पड़ने वाली वस्तुओं की अभिव्यक्ति स्वयं) करता है; लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि इस मत के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं ।
विपरीतप्रकाशश्च ध्रुवमापद्यते क्वचित् ।
तथा हीन्दीवरे दीपः प्रकाशयति रक्तताम् ॥६०७॥
दूसरे, उक्त मत को स्वीकार करने पर यह भी मानना पड़ेगा कि वैदिक वाक्य कभी कभी विपरीत अर्थ की अभिव्यक्ति भी अवश्य किया करते हैं; क्योंकि हम देखते हैं कि दीपक (जो यहाँ दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत है) नीलकमल
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