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शास्त्रवार्तासमुच्चय
एवं ह्युभयदोषादिदोषा अपि न दूषणम् ।
सम्यग् जात्यन्तरत्वेन भेदाभेदप्रसिद्धितः ॥५१८॥
इसी प्रकार, एक वस्तु को भेद तथा अभेद दोनों रूपोंवाली मानने का सिद्धान्त 'स्वरूपअनिश्चय' आदि दोषों से भी दूषित नहीं, और वह इसलिए कि 'भेद तथा अभेद दोनों का साथ रहना' इस प्रकार का एक विलक्षण वस्तुधर्म हमारे निकट प्रमाणसिद्ध है ।।
टिप्पणी-यदि किसी धर्म के संबंध में कहा जाए कि वह एक वस्तु में रहता भी है तथा नहीं भी रहता तो यह कथन 'उभय', 'संशय' अथवा "स्वरूपअनिश्चय' नाम वाले दोष का भागी है; हरिभद्र का कहना है किअनेकान्तवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत दोष का भागी इसलिए नहीं कि एक वस्तु में एक धर्म का रहना तथा उसी वस्तु में उसी धर्म का न रहना ये दोनों बातें एक विलक्षण रूप से साथ साथ प्रकट होती हुई हमारे अनुभव का विषय सचमुच बनती है।
एतेनैतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं पूर्वसूरिभिः । विहायानुभवं मोहाज्जातियुक्त्यनुसारिभिः ॥५१९॥
यह सब कहकर हमने अपने पूर्ववर्ती अपने उन प्रतिद्वन्द्वियों की बात का भी खण्डन कर दिया जिन्होंने अनुभव के साक्ष्य को तिलांजलि देकर मूढ़तावश किन्हीं थोथी खंडनात्मक युक्तियों का सहारा लिया था ।
द्रव्यपर्याययोर्भेदे नैकस्योभयरूपता ।
अभेदेऽन्यतरस्थाननिवृत्ती चिन्त्यतां कथम् ॥५२०॥
(हमारे उक्त प्रतिद्वन्द्वियों ने कहा था) द्रव्य तथा पर्याय यदि परस्पर भिन्न है तब एक वस्तु द्रव्य तथा पर्याय दोनों रूपों वाली नहीं हो सकती; और यदि द्रव्य तथा पर्याय परस्पर अभिन्न हैं तब सोचिए कि यह कैसे हो सकता है कि इनमें से एक (अर्थात् द्रव्य) स्थिर रहता है तथा दूसरा (अर्थात् पर्याय) नष्ट होता है।
यन्निवृत्तौ न यस्येह निवृत्तिस्तत् ततो यतः । भिन्नं नियमतो दृष्टं यथा कर्कः क्रमेलकात् ॥२१॥ क्योंकि जिसके नष्ट होने पर जो नष्ट नहीं होता वह नियमत: उससे भिन्न
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