________________
१२६
शास्त्रवार्तासमुच्चय कहा जा सकता है कि दूषित विज्ञान का ही नाम राग आदि मनोदोष है, लेकिन इस पर हमारा उत्तर है कि तब तो वह वस्तु जिसके कारण विज्ञान दषित अवस्था प्राप्त करता है विज्ञान की ही भाँति एक वास्तविक सत्ता होनी चाहिए उसी प्रकार जैसे नील आदि (जो एक स्वच्छ वस्त्र को रंग पाते हैं इस वस्त्र की ही भाँति) एक वास्तविक सत्ता हैं ।
मुक्तौ च तस्य भेदेन भावः स्यात् पटशुद्धिवत् । ततो बाह्यार्थतासिद्धिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥४०७॥
और मोक्षावस्था में विज्ञान अपने को दूषित करने वाली उक्त वस्तु से पृथक् होकर अवस्थित रहता है-उसी प्रकार जैसे नील आदि से पृथक् होकर वस्त्र पुनः स्वच्छ अवस्था प्राप्त करता है; जब बात ऐसी है तब विज्ञान से भिन्न बाह्य पदार्थों की सत्ता, जिसे स्वीकार करना प्रस्तुत वादी को अभीष्ट नहीं, सिद्ध हो गई ।
प्रकृत्यैव तथाभूतं तदेव क्लिष्टतेति चेत् ।
तदन्यूनातिरिक्तत्वे केन मुक्तिर्विचिन्त्यताम् ॥४०८॥
यदि कहा जाए कि विज्ञान का स्वभाव से ही दूषित होना उसका दूषित होना कहलाता है तो हम चाहेंगे कि प्रस्तुत वादी सोचे कि जब दोषों के अवस्थान की परिधि विज्ञान की परिधि से न कम है न अधिक तब मोक्षप्राप्ति (अर्थात् विज्ञान की दोषों से मुक्ति) कैसे संभव होगी ।
टिप्पणी-हरिभद्र का आशय यह है कि जब विज्ञान स्वभावतः दोषयुक्त है तब वह दोषमुक्त हो ही कैसे सकता है ।
असत्यपि च या बाह्ये ग्राह्यग्राहकलक्षणा' । द्विचन्द्रभ्रान्तिवद् भ्रान्तिरियं नः क्लिष्टतेति चेत् ॥४०९॥
प्रस्तुत वादी कह सकता है : "बाह्य पदार्थों के अभाव में भी अनुभूत होने वाले ग्राह्यग्राहकभाव को ही हम विज्ञान का दूषित होना कहते हैं, और यह ग्राह्यग्राहकभाव (अतएव विज्ञान का यह दूषित होना) एक भ्रान्ति है उसी प्रकार जैसे (किसी नेत्ररोगी को) दो चन्द्रमाओं का दीखना ।" लेकिन इस पर हमारा उत्तर है :
१. क का पाठ : "लक्षणे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .