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चौथा स्तबक
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(१) कारण का स्वभाव कार्य को जन्म देना है; (२) कारण का स्वभाव कारण से अभिन्न है; (३) कार्य का जन्म कार्य से अभिन्न है; (४) कारण कार्य से अभिन्न है ।
एवं तज्जन्यभावत्वेऽप्येषा भाव्या विचक्षणैः । ।
तदेव हि यतो भावः स चेतरसमाश्रयः ॥३५६॥
इसी प्रकार विद्वानों को सोचना चाहिए कि जब कहा जाता है कि एक वस्तु का स्वभाव दूसरी वस्तु से जन्म पाना है तब भी पूर्वोक्त बात ही निश्चित होती है (अर्थात् यह कि यहाँ उक्त दूसरी वस्तु ही उक्त पहली वस्तु बन जाती है); यह इसलिए कि उक्त पहली वस्तु का यह स्वभाव ही है कि वह जन्म पाए जब कि उसका यह जन्म पाना रूप स्वभाव उक्त दूसरी वस्तु पर निर्भर करता है।
टिप्पणी-प्रस्तुत कारिका में हरिभद्र निम्नलिखित दो वक्तव्यों की सहायता से निम्नलिखित तीसरे वक्तव्य को फलित कर रहे हैं :
(१) कार्य का स्वभाव, कारण से जन्म पाना है;
(२) कारण से जन्म पाना कारण पर निर्भर होता है (अर्थात् कारण से अभिन्न होता है)।
(३) कार्य का स्वभाव कारण पर निर्भर होता है (अर्थात् कारण से अभिन्न होता है)।
इत्येवमन्वयापत्तिः शब्दार्थादेव जायते ।
अन्यथा कल्पनं चास्य सर्वथा न्यायबाधितम् ॥३५७॥
इस प्रकार (जनक, जन्य आदि) शब्दों के अर्थों पर विचार करने से ही यह मत स्थिर हो जाता है कि रूप-रूपान्तर धारण करते हुए एक बने रहना वस्तुओं का स्वभाव है, उक्त अर्थों के सम्बन्ध में किसी अन्य प्रकार की कल्पना करना सर्वथा तर्कविरुद्ध है ।
तद्रूपशक्तिशून्यं तत् कार्यं कार्यान्तरं यथा । व्यापारोऽपि न तस्यापि नापेक्षाऽसत्त्वतः क्वचित् ॥३५८॥
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