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शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
हुआ करता है । अगली कारिकाओं में हरिभद्र कहेंगे कि उक्त सम्बन्ध विकल्प द्वारा भी नहीं जाना जा सकता ।
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विकल्पोऽपि तथा न्यायाद् युज्यते न ह्यनीदृशः । तत्संस्कारप्रसूतत्वात् क्षणिकत्वाच्च सर्वथा ॥ ३४६॥
उक्त कारणों से यह मानना भी उचित नहीं कि वस्तुओं के बीच कार्यकारणसंबन्ध प्रत्यक्ष से विलक्षण स्वभाव वाले विकल्पात्मक ( = चिन्तनात्मक ) ज्ञान का विषय बनता है, क्योंकि विकल्प की उत्पत्ति प्रत्यक्ष द्वारा जनित संस्कारों से होती है ( जब कि यह दिखाया जा चुका कि प्रस्तुत वादी के मतानुसार कार्यकारण सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा संभव नहीं); दूसरे, प्रस्तुतवादी की मान्यतानुसार जगत् की वस्तुएँ सर्वथा क्षणिक है ( और ऐसी दशा में उसे यह कहने का अधिकार नहीं कि कभी उत्पन्न हुए कोई संस्कार इस समय विकल्पात्मक ज्ञान को जन्म देते है ) ।
नेत्थं बोधान्वयाभावे घटते तद्विनिश्चयः ।
माध्यस्थ्यमवलम्ब्यैतत् चिन्त्यतां स्वयमेव तु ॥३४७॥
इस प्रकार इस संभावना को स्वीकार किए बिना कि कोई ज्ञान अपने रूप रूपान्तरों के बीच एक ही बना रहता है वस्तुओं के बीच कार्य कारणभाव का निश्चय किया जाय संभव नहीं । प्रस्तुत वादी को चाहिए कि वह इस परिस्थिति पर मध्यस्थ भाव से स्वयं विचार करे ।
अग्न्यादिज्ञानमेवेह न धूमज्ञानतां यतः । व्रजत्याकारभेदेन कुतो बोधान्वयस्ततः ॥ ३४८॥
कहा जा सकता है : ' अग्नि आदि का ज्ञान ही धूमज्ञान नहीं बन जाया करता, क्योंकि इन दोनों के बीच रूपभेद पाया जाता है; और ऐसी दशा में इस संभावना को कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि अपने रूप रूपान्तरों के बीच कोई ज्ञान एक ही बना रहता है । इस पर हमारा उत्तर है :
तदाकारपरित्यागात् तस्याकारान्तरस्थितिः ।
बोधान्वयः प्रदीर्घेकाध्यवसायप्रवर्तकः ॥३४९॥
एक रूप को त्यागकर दूसरे रूप को धारण करना ही एक ज्ञान का
१. ख का पाठ : तथान्यायात् ।
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