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________________ ७ सिरिंदहंसगणिविरइयं पालिअमेअं च वयं पढमं जेणं दिणाणि बहुभाणि । जणगो मरणं पत्तो पुत्तो ठाइ पिउपयम्मि ॥११०५।। नाऊणमवसरं मोहाईहिं पेसिआ य 'निकिवया । "धणिणं 'कलंतरेणं जो 'दम्मे देइ तव्वसओ ॥११०६।। तेसिं कारेइ असण-पाणनिसेहाइ जो तओ ते व । बझंति 'छुहाइ “तिसाइ भिसं को वि मरइ कयावि ॥११०७॥ एगय धणं च खीणं जेणं गहिओ नरेसरनिओगो । तत्थ य हिंसा पयडीभूआ जस्स सममेपण ॥११०८।। अप्पञ्चक्खाणावरणकसायप्पमुहदोसउदएणं । वियनिरविक्खेणं जेणं बंधिज्जंति के वि नरे ॥११०९।। ताडिज्जंते एगे पुरिसा जेण कसपमुहचाएहिं । सीआऽयवधरणेहिं पीडिज्जते तहा अन्ने ॥१११०॥ पाणब्ववरोवणओ जेण हया के वि माणवा अह जो । चत्तो अविरत्तीए तीए देसविरपियाए ॥११११।। कुणइ कमागयमे देवगिहे वंदए अ जो देवे । कारेइ महापूअं सभलीकयदंसणो जो अ ॥१११२।। "सम्मत्तपओअणगोअरे वहह पक्खवायमह तेण । न गओ अणंतरं जो नरगाइसु दुक्खगेहेसु ॥१११३।। किंतु विराहिअसम्मत्तगुणो देसविरईइ भंसेण । हीणभवणाहिवसुरेसु सुंदरो किर समुप्पन्नो ॥१११।। भमिओ जो भूरिभवं तओ सुओ माणिभद्दनामो अ । जाओ जो सम्महिट्ठिअसिडिअसालिभद्दस्स ॥१११५।। तत्थवि जेणं पत्तं सम्मत्तं देसविरइगहणस्स । अणुरागाओ थूरमुसावायविरइवयं च तहा ॥१११६।। कन्ना-गो-भू-नासावहारविहि-कूडसक्खिआविसयं । 'बायरमलीअमेअं चत्तं जेणं च बीअवए ॥१११७॥ दुविहं तिविहेण वयं पञ्चक्खाया य जेण तत्थ वए । अइआरा पंच इमे ससि व्व विहिअषयमालिन्ना ॥१११८।। १ निष्कृपता निर्दयता इत्यर्थः ॥ .. कलान्तरेण व्याजेन इत्यर्थः ॥३. द्रम्मान् ॥ ४. क्षुधया ॥ ५. तृषया ।। ६. व्रतनिरपेक्षेण ।। ७. सम्यक्त्वप्रयोजनगोचरे ।। ८. पक्षपातमथ तेन ॥ ९. बादरम् अलीकमेतत् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002643
Book TitleBhuvanabhanukevalicariya
Original Sutra AuthorIndahansagani
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1976
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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