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सुर-नरवइ कीधा हुवइ ए, राजनीति जगमांहि । तुम्हे जइ लोपस्यु ए, तउ लहीयइ किणि पाहि ।। कुम० ॥७४॥ पहिलं मुनिवर प्रणमीइ ए, अनुक्रमि समकीत धार । तुम्हे क्रम लंघीउ ए, एहनु कवण विचार ॥ कुम० ॥७५॥ अमर कहइ साचु का ए, पुणि कारण छइ एक । सुणु हवि हरखि थई ए, आंणी मनह ववेक ॥ कुम० ॥७६।।
ढाल नयर सुदरसण मणिरथ राजा, तसु भाई जुगबाहु । वईरवसिं हण्यु लघु बंध(धु), तिणि असि धरी निज बाहु ॥ तिणि प्रहारि आकलहुं हुउ, मयणिरेहा तिहां आई। मुझनइ वईरबंध छोडायु, जेणि उपदेस सुणायु ॥७७॥ समकोत मूल धरम सुणि आदरि, कालऽकाल करि तिणि वारि । इन्द्र सामानीक पंचमइ कलपइ, दस सागर थिती धार ॥ ते हुं देव तिहाथी आव्यु, अवधि जांणी सार । ए मूझ घरमाचारिज सद्गुरू, एह तणु ए उपगार ॥७८।। तेणइ एहनइ वांदीनइ वांद्या, मइ ए श्रीऋषिराज । ते सुणी वद्याधर बोलइ, ए ए धरमपसाय ॥ मयणिरेहानइ देव बोलावइ, हे साहांमणि ! स्युं कीजइ । तुझनइ जे ईछा हुइ मनमांहि, ते सवि मुझ कहीजइं ॥७९।। मयणिरेह तव बोलइ सुरवर, मूझ शिवसुख भावइ । तेतउ श्रीजिनधर्मथी थाई, बीजइ नवि अ पावइ ॥ तु पणि पुत्रतणुं मूख देखी, लेस्युं संयमभार । अमर मिथूलां आई पुहुचाई, वांद्या चेई उदार ॥८॥ वसती जाई साहुणी वांदो, निसुण्यु धरम विचार । ते प्रतिबुधि हवइ सुर वोलइ, चालु राजिदुआरी ॥ राजभुवनि निज सुत देखाड, सतो कहि सुणि वात ।। देखी सुत मूख नेह ज वाधइ, कुण नंदन कुण मात ॥८॥ वार अनंत सजन सबि हुआ, शत्रु अनंती वारिइं । ईणि संसारि भमतां जीवनइ, सुणियइ सूत्र मञ्झारि ॥
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