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________________ [47] ही व्याकरण लिखा है 115 अतः यह देखना होगा कि पाणिनि ने 'वाक्यगत अर्थ' का निर्देश किस तरह से और कहाँ कहाँ पर किया है ? (१) भाषा में प्रयुक्त होनेवाले वाक्य त्रिविध होते हैं: (क) कर्तरिवाच्य, (ख) कर्मणिवाच्य, एवं (ग) भाववाच्य । वाक्य में अनिवार्य रूप से आनेवाले क्रियापद की धातु यदि सकर्मक होती है, तो उसमें से कर्तरिप्रयोग अथवा कर्मणिप्रयोगवाला वाक्य बन सकता है और यदि क्रियावाचक धातु अकर्मक होती है, तो उसमें से कर्तरिवाच्य अथवा भाववाच्य हो सकता है । इन दोनों अवस्थाओं में (= धातु चाहे सकर्मक हो या अकर्मक हो) एक कर्तरि-प्रयोग उभय साधारण है । अतः सम्भव है कि कोई भी वैयाकरण अपने व्याकरणतन्त्र में सबसे पहले कर्तरिप्रयोगवाली वाक्यरचना मूल में 'नींव की ईंट' के रूप में रखेगा और बाद में रूपान्तरण (Transformational grammar) के नियम दे कर, अन्य दो प्रकार की वाक्यरचनायें निष्पादित करके दिखायेगा, परन्तु पाणिनि ने ऐसा नहीं किया है । चूंकि वक्ता के मन में ऐसा कभी नहीं होता कि वह पहले कर्तरि प्रयोग करने की सोचे और बाद में परिस्थिति वशात् उसी वाक्य को अन्य प्रकार में बदल कर बोले ! पाणिनि के तन्त्र में भी, जैसा कि वक्ता के मन में होता है, वाक्यनिष्पत्ति की प्रक्रिया के आरम्भ में ही ल: कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । पा. सू. ३-४-६९ सूत्र से वक्ता की विवक्षा पूछी/जानी जाती है कि धातु के बाद रखे गये ल् कार से कर्तृकारक वाच्य विवक्षित है या कर्मकारक (या भाव) विवक्षित वाच्य है । अर्थात् पाणिनि ने अपने शब्दनिष्पादक तन्त्र में आरम्भ से ही, कर्तरि वाक्य रचना की तरह, कर्मणि वाक्यरचना भी मूल रचना के रूप में उत्पन्न हो सकती है/होती है इस तरह की गतिविधि बताई है। यहाँ पर साथ में यह भी अवगत करना है कि पाणिनि ने ल: कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । ३-४-६९ सूत्र से 'वाक्यगत अर्थ' का ही निरूपण किया है ।16 15. Vyākarana Mahābhāsya - Vibhaktyähnika Ed. & Trans. by S. D. Joshi & ___J. A. F. Roodbergen, University of Poona, Pune, 1980 (Introduction, p. i, vi to XV.) 16. यहाँ स्मर्तव्य है कि नैयायिकों के मत में – "प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक शाब्दबोधः" होता है। जिसके परिणाम स्वरूप 'चैत्रः हरिं भजति ।' वाक्य का "हरिकर्मकप्रीत्यनुकूलकृतिमान चैत्रः ।" ऐसा शाब्दबोध होता है । इसका तात्पर्य यह है कि 'लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः । (३-४-६९)' सूत्रविहित ल् कार का कर्तृ-कर्मादि अन्यतमार्थ पूरे वाक्य का ही अर्थ कहा जाता है । (नैयायिको के अनुसार भी, कोई भी ल् कार कर्तृ/कर्मादि अर्थ में प्रयुक्त होता है ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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