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[21] शिष्याः वेदार्थं जानन्ति ॥ अर्थात् - ऐसे विशेषणीभूत तद्धितान्त शब्दों, प्रातिपदिक संज्ञक बनकर फिर से किसी नये वाक्य में प्रवेश करने के लिए, तन्त्र के पूर्वगोलार्ध में निर्दिष्ट सूत्रावली की शरण में पहुँच जाते हैं । इस तरह पाणिनीय व्याकरणतन्त्र निरन्तर चक्रवत् घूमता रहता है ।
2.1.3 समास रूपा वृत्ति :
विग्रह वाक्य के दो (या अधिक) पद अपना अलग अलग अर्थ देते हैं । परन्तु जब व्याकरण की विशिष्ट - प्रक्रिया से उनको एक साथ में बिठाया जाता है, दो पृथक् पदों में से एकपद बनाया जाता है, और इसके परिणाम स्वरूप दोनों का एकार्थीभाव सिद्ध होता है तब उस को 'समास' कहते हैं । यथा
राजपुरुषः (गच्छति)
| यहाँ पर 'राज्ञः पुरुषः (गच्छति ) '
राजन् + ङस् + पुरुष +
L
'तत्पुरुष समास' संज्ञा
उसके बाद
'समास' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा
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यह
राजन् + ० + पुरुष + o
राज० + पुरुष०
=
सु
राजपुरुष
www
राज्ञः पुरुषः (गच्छति ) लौकिकविग्रह वाक्य है । और
यह अलौकिक विग्रहवाक्य है ।
(१) प्राक् कडारात्समासः । २-१-३, (२) विभाषा । २-१-११, और
(३)
तत्पुरुषः । २-१-२२ के अधिकार में आये हुए
(४) षष्ठी । २-२ -८ से षष्ठ्यन्त शब्द का
समर्थ सुबन्त के साथ 'समास' होता है । और उसको 'षष्ठी तत्पुरुष' समास कहते है ।
जिस के फलस्वरूप
(५) कृत्तद्धितसमासाश्च । १-२-४६ से प्रातिपदिक संज्ञा होगी ।
(६)
सुपो धातुप्रातिपदिकयोः । २-४-७१ से सुप् विभक्ति प्रत्ययों का लुक् होगा । उसके बाद
(61)
नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य । ८-२-७ से 'न्' कार का लोप, (८) 'समास' की सिद्धि ।
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