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ॐ
पाणिनीय व्याकरण : चक्रवत् घूमता हुआ एक तन्त्र
( प्रथम व्याख्यान )
येनाक्षरसमाम्नायम् अधिगम्य महेश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥
0.0 भूमिका :
महर्षि पाणिनि (५००-४०० ईसा पूर्व) ने वैदिक साहित्य में प्रयुक्त एवं लोक में प्रचलित संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण एवं अनवद्य " अष्टाध्यायी" व्याकरण बनाया है । काशिकाकार कहते हैं कि प्राचीन भारत में 'आकुमारं यशः पाणिनेः । ' (१-४-८९ इत्यत्र महाभाष्यम्) किशोरावस्थावाले बालकों तक पाणिनि का यश फैल गया था । यह व्याकरण अपनी अपूर्व एवं अद्वितीय विशेषताओं के कारण आज सारे संसार में सुप्रसिद्ध हो गया है । अतः " पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते ।" (२ - १ - ६ इत्यत्र काशिका) यह उक्ति साम्प्रतकालमें भी इतनी ही प्रस्तुत है । " पाणिनि" शब्द इस संसार में चिरकाल से प्रकाशमान और अविस्मरणीय भी है । 0.1 पाणिनीय व्याकरणकी विशेषतायें :
पाणिनि का 'अष्टाध्यायी' व्याकरण जिन पाँच विशेषताओं के कारण विश्वप्रसिद्ध बना है, वे इस प्रकार हैं :
(१) 'अष्टाध्यायी' व्याकरण असाधारण लाघव साधक युक्ति - प्रयुक्तियाँ के साथ लिखा गया है ।
(२) लोक में प्रचलित एवं वेद में प्रयुक्त संस्कृत भाषा का युगपद् निरूपण करनेवाला यह एकमात्र व्याकरण है ।
(३) वह “वाक्यसंस्कारपक्ष" का पुरस्कार करनेवाला (Sentence level का) व्याकरण है । (४) वह प्रयोगार्ह साधु शब्दों (= वाक्य) का निष्पादक तन्त्र ( Generative grammar) है। (५) एवमेव वह संस्कृतभाषा के वर्णनात्मक प्रकार (Descriptive, grammar) का व्याकरण है I
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पाणिनि ने अपने 'अष्टाध्यायी' व्याकरण को अनेक तरह से लाघवपूर्ण; असंदिग्ध एवं अस्तोभ बनाने और साथ ही वाक्यसंस्कारपक्ष का पुरस्कार करने के लिए अनेक प्रकार की
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