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पाश्र्व को आर्यदिन्न नामक प्रथम गणधर था और पुष्पचूला आर्या प्रमुख शिष्या थी । प्रसेनजित् नामक राजा उनका भक्त था 12 पार्श्व अरहन्त वज्ररिषमनाराचसंघयन वाले और समचतुरस्र संस्थान वाले थे । 3
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पाश्र्व की सोलह हजार साधुओं की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा तथा अडतिस हजार साध्वीयों रू उस्कुष्ट साध्वा सम्पदा थी । पाश्व की साढ़े तीन सौ 'चौद - पूर्वीनी' सम्पदा थी । देव, मनुष्य और असुर लोक के विषय के वाद में पराजय ना प्राप्त करें ऐसी उनकी वादियों की ! उत्कृष्ट सम्पदा थी । पाश्र्व के एक हजार जिन थे । उनके अग्यारसौ वैक्रियलब्धि वाले साधु थे । उनकी तीन लाख, सत्ताइस हजार उत्कृष्ट श्राविकाओं की संपदा थी। उनके आठ गण व आठ गणधर थे । गणधरों के नाम-शुभ, शुभघोष, वसिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यश थे । अंगती नामक गाथावती स्व भूता नामक वृद्धकन्या पाश्च का उपदेश सुन कर प्रत्रजित हुई थी ।
भगवान महावीर के संघ में जुड़ जाने वाले पाइपत्थीयों का उल्लेख
भगवान महावीर के संघ में प्रवेश करने वाले कुछ पार्श्वापत्यीयों का उल्लेख आगमों में आया है । उत्तराध्ययनसूत्र के तेइसवें अध्याय के अनुसार यह ज्ञात होता है कि महावीर के समय से पूर्व के श्रमण ऋजु एवं प्रज्ञ थे + अतएव श्रीपाश्र्वनाथ भगवान ने आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होने वाले श्रमणों के लिए मात्र चार नियमोपनियम बनाये । तत्पश्चात् जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे श्रमणों में ऋजुता के स्थान पर वक्रता तथा प्रज्ञा के स्थान पर जड़ता बढ़ती गई 15 परिणामस्वरूप पार्श्व की परंपरा में दीक्षित श्रमणों के आचार में शिथिलता दृष्टिगोचर होने लगी । अतः महावीर स्वामी ने अपने शासनकाल में इस शिथिलता को दूर करने हेतु चार व्रतों की जगह पाँच व्रतों को लेने की आवश्यकता समझाई तथा अनेकों नियमोपनियम बनाये । इसके बाद महावीर के शासन काल में जितने संयम निर्वाह रूपी ध्येय वाले पार्श्वापत्यीय थे उन्होंने चार व्रत की जगह पाँच व्रत स्वीकार किये । तदुपरान्त प्रायः संध्या प्रतिक्रमण करना स्वीकार करने के पश्चात् ही वे महावीर के संघ में प्रविष्ट हो सके थे ।
महावीर के संघ में प्रवेश प्राप्त पार्श्वापत्यीयों की संख्या संभवतः अधिक होगी पर आगमों में मात्र छः पार्श्वापत्ययों का वर्णन, संक्षिप्त रूप से मिलता है जिसके द्वारा उनकी
1. तित्थोगाली-गाथा १० व ११
2. तिस्थोगाली गाथा १२
3. स्थानाङ्गसूत्र ६९० ।
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4. उत्त० २३
वही
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