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________________ पद्मसुन्दरसरिविरचित १२९ इति प्रबुद्धोऽपि जिनो विज्ञप्तोऽथ बिडौजसा । विजहार महीपीठे धर्ममार्ग प्रवर्तयन् ॥४१॥ पराईयप्रातिहार्यद्धि भूषितः सुरकोटिभिः । सेव्यमानः स भगवान् विजहार वसुन्धराम् ॥४२॥ अष्टौ गणधरास्तस्याभल्लब्धिविभूषिताः । सर्वपूर्वधराश्चासन् सार्द्धत्रिशतसम्मिताः ॥४३।। अवधिज्ञानिनस्तस्य चतुर्दशशतप्रमाः । सहस्र केवलालोका एकादशशतप्रमाः ॥४४॥ वैक्रियर्द्धियुतास्तस्य सार्द्धसप्तशतप्रमाः । समनःपर्ययास्तस्य तथाऽनुत्तरगामिनः ॥४५॥ द्वादशैव शतान्यासन् षट्शती वादिनामपि । मुनयस्त्वार्यदत्ताद्याः सहस्राणि तु षोडश ।।४६।। आर्यिकाः पुष्पचूलाद्या अष्टत्रिंशत् सहस्रमाः । लक्षमेकं चतुःषष्टिसहस्राण्यास्तिका विभोः ।।४७॥ लक्षत्रयं च सप्तविंशतिसहस्रसंयुतम् । श्राविकास्तस्य सद्धर्म दिशतः सर्वतोऽभवन् ॥४८॥ एवं निजगणैर्युक्तो भगवान् प्रत्यबू बुधत् । भब्यपद्माकरान् धर्मे केवलज्ञानभास्करः ॥४९॥ (४१) प्रबुद्ध होने पर भी इन्द्र के द्वारा इस प्रकार स्तुति किए हुए जिनदेव ने महापीठ पर धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हुए विहार किया । (४२) परार्द्ध प्रतिहार्य समृद्धि से भूषित वह भगवान जिनदेव पृथ्वी पर विहार करने लगे । (४३-४८) सर्वत्र धर्म को फैलाने वाले उन भगवान के आठ गणधर थे जो लब्धियां से विभूषित थे, तीन सौ पचास सब पूर्वो के जानकार पूर्वधर थे; चौदह सौ अबधिज्ञानी थे; एक हजार केवलज्ञानी थे, ग्यारह सो वैक्रियलब्धिवाले थे, सातसो पचास मनःपर्यायज्ञानी थे, बारह सौ अनुत्तरगामी थे, छःसो वादी थे, सोलहहजार आर्यदत्त आदि मुनि थे; अड़तीसहजार पुष्पचूला आदि आर्यिकायें थी, एक लाख चौसठ इजार आस्तिक श्रावक थे और तीन लाख सत्ताइसहजार श्राविकायें थीं ।(४९) इस प्रकार अपने गणों से युक्त केवलज्ञान के कारण भास्कररूप भगवान ने धर्म में भव्यजनोंरूपी कमलों को प्रबुद्ध किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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