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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
जय त्वं त्रिजगद्वन्धो ! जय त्वं त्रिजगद्धित ! । जय त्वं त्रिजगत्त्रातर्जय त्वं त्रिजगत्पते ! ॥३३॥ त्वद्ध्यानात् पूतचित्तोऽहं त्वन्नुतेः पूतवागहम् । त्वन्नतेरस्मि पूताङ्गो धन्यस्त्वदर्शनादहम् !।३४॥ त्वत्पादनखराशुकिरणाम्बुनिमज्जनैः । मूर्धाऽभिषिक्त इव मे भाति नम्रस्य पावनैः ॥३५।। तव स्तोत्रार्जितात् पुण्यादित्येवाऽऽशास्महे फलम् । मूयान्नः कमरजसां त्वयि भक्तिरवावरी ।।३६॥ इदं ते पावनं स्तोत्रमश्रान्तं यः स्मरेत् सुधीः । लभते स सदानन्दमङ्गलश्रीपरम्पराम् ॥३७॥ शतक्रतुरिति स्तुत्वा श्रीपाच विश्वपावनम् । अथ तीर्थविहारस्याऽकरोत् प्रस्तावनामिति ॥३८॥ भगवन् ! पापसन्तापतष्तानामङ्गिनां तव । ब्याख्यासुधारसस्यन्दैः प्रीणनावसरोऽधुना ।।३९।। निःश्रेयसाय भव्यानामुज्जिही भवाम्बुधेः ।
करोतु भगवानद्य धर्मतीर्थप्रवत्तनम् ॥४०॥
(३३) तीनों जगत के बन्धु आपकी जय हो, तीनों जगत् के हितकारी आपका जय हो । तीनों जगत के रक्षक आपकी जय हो, त्रिजगत्पति आपकी जय हो । आपका ध्यान करने से मैं पवित्रहृदय हो गया हैं। आपकी स्तुति करने से मैं पवित्र वाणी वाला हो गया हूँ। आपको नमस्कार करने से में पवित्रात्मा हूँ तथा आपके दर्शन से में धन्य हो गया हूँ । (३५) आपके चरणों के नखों के ऊर्ध्वगामी किरणरूप जल के पवित्रस्नान से मस्तक पर अभिषिक्त की भांति झुके हुए शीशवाला मैं महसूस करता हूँ । (३६) आपके स्तोत्र (स्तुति) से अर्जित पुण्य से हम यही फल चाहते हैं कि कम धुलि को हटाने वाली (हमारी) भक्ति आप में हो । (३७) यह आपका पवित्र स्तोत्र लगातार जो बुद्धिमान स्मरण करता है वह सदानन्ददायी मङ्गलकारक लक्ष्मीपरम्परा को प्राप्त करता है । (३८) इन्द्रदेव इस प्रकार विश्व को पवित्र करने वाले श्रीपार्श्व की स्तुति कर के तीर्थविहार के लिए प्रस्तावना करने लगे । (३९) हे प्रभो !, पाप-सन्ताप से दुःखी शरीरधारियों को व्याख्यानरूपी अमृतरसास्वादन से संतृप्त करना - यह अब आपका अवसर है। (४०) भव्य प्राणियों के संसारसागर से उद्धार के इच्छुक आप भगवान उनके कल्याण (मोक्ष) के लिए आज धर्मतीर्थ की प्रवत ना करे ।
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