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पनसुन्दरसूरिविरचित
सुरास्त्वयि वितन्वन्ति नभस्तः सुमनोऽञ्जलीन् । स्वर्गश्रियेव निर्मुक्तान् प्रमोदाश्रुकणानिव ।।९।। अप्रत्नरत्नरचितं तव सिंहासन विभोः । त्वदास्यायै समानीतं मेरोः शृङ्गमिवामरैः ॥१०॥ जगत्त्रयपवित्रत्वविधानायेव यस्यति । तव व प्रभाभाराकान्तं शालत्रयं विभो । ॥११॥ तव यो दुन्दुभिध्वानडम्बरो व्यानशेऽम्बरम् । शब्दब्रह्मात्र विश्रान्तमितीव जगतां जगौ ॥१२॥ तव वाकिरणौघोऽयमनन्तज्ञानभास्वतः । प्रसर्पन व्यधुनोद् ध्वान्तं जगज्जनमनोगतम् ॥१३॥ अहार्यप्रातिहार्याणि नान्यसाधारणानि ते । स्वयं प्रकाशयन्त्येव जगत्साम्राज्यवैभवम् ॥१४॥ सत्यामिन्द्रियसामध्यां त्वयि ज्ञानमतीन्द्रियम् । जागर्त्यचिन्तनीया हि प्रमूणां खलु शक्तयः ॥१५॥ तव कल्प दमस्येव भक्तिः शक्तिगरीयसी ।
दाऽपि पम्फुलीत्येव फलसम्पदमद्भुतम् ॥१६॥ (९) देवता लोग आप पर आकाश से पुष्पों की वर्षा करते हैं, मानों स्वर्ग की लक्ष्मी के आनन्दाभु की बूंदें गिर रही हों । (१०) हे प्रभो !, आपका यह नवीनरत्न. जटितसिंहासन ऐसा लगता है मानो ओपके ही बैठने के लिए देवतालोग सुमेरुपर्वत के शिखर को लाये हो । (११) हे प्रभो !, आपके शरीर की कान्ति के मार से व्याप्त शालत्रय (तीन किले) मानों तीनों लोकों को पवित्र करने का प्रयत्न करते हैं । (१२) दन्दभि की ध्वनि जैसी आपकी आवाज आकाश में प्रसृत है, वह मानों 'शब्दब्रह्म यहाँ विश्रान्त है' ऐसा तीन जगत् को कहती है । (१३) अनन्त ज्ञान से दीप्त ऐसी आपकी वाणीरूपी किरणों का समुदाय संसार के लोगों के फैलते हुए मानस अन्धकार को दूर करता है । (१४) आपका यह अनन्यसाधारण अहार्य प्रतिहार्य स्वयं जगत् साम्राज्य के वैभव को प्रकाशित करता है । (१५) इन्द्रियसामग्री के होने पर भी आपका ज्ञान अतीन्द्रिय है। समर्थ व्यक्तियों की अचिन्तनीय शक्तियाँ जागृत होती हैं । (१६) आपकी भक्ति, कल्पवृक्ष की भांति अत्यन्त शक्तिवाली है, अल्प होने पर भी अटभुत फलसम्पात्त को विकसित करती है।
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