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________________ ११७ पद्मसुन्दरसरिविरचित बन्धहेतोरभावात् स्यान्निर्जराकरणादपि । यः कृत्स्नकर्गनिमोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः ॥१०९॥ तस्योपायस्त्रिधा सम्यग्ज्ञानदृग्वृत्तलक्षणः । जीवाजीवौ पुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराः ॥११०॥ बन्धमोक्षौ नवैते स्युः पदार्थाः सत्यतामिता । भव्याऽभव्यस्तथा मुक्तस्त्रिधा जीवनिरूपणा ॥१११॥ अजीवः पञ्चधा धर्माधर्मकालखपुद्गलाः । गत्युपग्रहकृद्धर्मो मत्स्यानां सलिलं यथा ॥११२।। अधर्मः स्थित्यवष्टम्भः तरुच्छाया नृणामिव । अवगाहप्रदं व्योमाऽमृत यद् व्यापि निष्क्रियम् ।।११३।। वर्तनालक्षणः कालः सा तु स्वपरसंश्रयैः । पर्यायैर्नवजीर्णत्वकरणं वर्तना मता ॥११४॥ स मुख्या व्यवहारात्मा द्वेधा कालः प्रकीर्तितः । मुख्योऽसंख्यैः प्रदेशः स्वैश्चितो मणिगणैरिव ॥११५।। (१०९) बन्ध के हेतुओं का अभाव होने के कारण कर्मो से अत्यन्त मुक्ति होती है। निर्जरा से भी कर्म से अत्यन्त सुक्ति होती है। यही मोक्ष है । मोक्ष अनन्त मुखात्मक है। (१९०- १११) मोक्ष का उपाय सभ्यज्ञान, सम्यक्दर्शन, और सम्यक चारित्र्य ये तीनों मिलकर हैं । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आरव, संवर, निर्जरा, अन्य मोक्ष-ये नौ तत्त्व हैं। जीव के तीन भेद हैं-भव्य. अभव्य : (११२-११३) अजीव पाँच प्रकार का है-धर्म, अधर्म, काल, आकाश व पद्गल । धर्म गति का सहायक कारण है । उदाहरणतः जैसे जल मत्स्य की गति में सहायक होता है वैसे धर्म (जीव और पुद्गल की) गति में सहायक होता है । अधर्म स्थिति का सहायक कारण है । मुसाफिर की स्थिति में जिस प्रकार तरु की छाया सहायक होती है उसी प्रकार (जीव और पुद्गल की स्थिति में) अधर्म सहायक है। आकाश'द्रव्यों को रहने की जगह देता है । वह अमूत है, व्यापक है, निष्क्रिय है । (११४) काल का लक्षण वर्तना है । स्वाश्रित पर्यायों के द्वारा या पराश्रित पर्यायों के द्वारा नवत्वजीर्णत्व करना ही वर्तना मानी गई है । (११५) काल दो प्रकार का कहा गया है व्यवहारकाल व मुख्यकाल । जो मुख्यकाल है वह अपने असख्यप्रदेशों का मणियों के ढेर के समान ढेर है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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