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________________ ९४ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य क्वाहं पूर्व वारणास्माऽथ सम्प्र त्यासं साक्षाद् विश्वविश्वकपूज्यः । श्रेयानस्मान्मोक्षमार्गाभियोगः संसारिवं केवलं बन्धहेतुः ॥७३॥ भ्राम्यत्येष भ्रान्तिमूढो दुरात्मा गत्यादीनां मार्गणानां विवतैः । ज्ञानी तस्मान्नापि संसारपङ्के लिप्येतासौ कर्मभावाद् विरतः ॥७४॥ स्त्रीभोगादौ भेषजे तत्परः स्या । देष प्राणी तीवकामज्वरातः । नायं भोगः किन्तु रोगोपचारो नीरोगः किं भेषजं क्वापि कुर्यात् ॥७॥ निर्द्वन्दवं सौख्यमेवाहुराप्ताः सद्वन्द्वानां रागिणां तत्कुतस्यम् । तृष्णामोहायासकृच्चान्यनिनं सौख्यं किं स्यादापदां भाजनं यत् ! ॥७॥ सौख्यं स्त्रीणामङ्गसङ्गाधदि स्यात् तादृग् बाढं तत् तिरश्चामपीह । पद् वा निम्बोरभूतकीटोऽतिमिष्ट मन्येतासौ रागवांस्तद्रस वा ।७॥ दीक्षाकाल जानकर वे इस प्रकार से भाव करने लगे-कहाँ मैं पहले हाथीरूप था, (और) इस समय सम्पूर्ण विश्व का पूज्य हूँ। इसलिए मोक्षमार्ग का अनुसरण ही कल्याणकर है तथा सांसारिकता ही बन्धन का हेतु है । (७४) भ्रान्ति से मूढ़ यह दुरात्मा गति आदि मार्गणा स्थानों के विवों से संसरण कर रही है । अतः ज्ञानी पुरुष कर्मभाव से विरक्त होकर संसार रूपी कीचड़ में लिप्त नहीं होते हैं । (७५) यह प्राणो तीव्र-कामज्वर से पीड़ित होकर स्त्री भोगादि औषधि में तत्पर रहता है । यह भोग नहीं है, किन्तु रोगों का उपचार है। क्या स्वस्थ व्यक्ति कभी भी औषधि का प्रयोग करता है ? (७६) तृष्णा, मोह और गस का जनक, अन्य के अधीन और आपत्तियों का स्थान जो है उसे क्या सुख कहा जा सकता है ? (७७) स्त्रियों के अंगसम्पर्क से ही पदि सुख का अनुभव हो तो वह पराओं को भी होता है। अथवा नीम के वृक्ष में पैदा हुआ कीड़ा उसके रस का रागी होने के कारण (रस को) अति मीटा ही मान लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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