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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित इत्थं क्रुधा ज्वलितमानस एष पापः प्राग्बद्धवैरकलुषः कमठस्वरूपः । मृत्वा कुदृगभवनवामिषु मेघमाली त्यासीत् सुराधम इतोऽप्यवमाननातः ॥६८॥ तन्नागदम्पतियुगं जिनलब्धबेधं मृत्वा बभूव धरणः स च नागराजः । नागी तदप्रमहिषीति महानुभाव संसर्गजं फलमुदेति न चाल्पभूति ॥६९।। पावः स्वसैन्यसहितो निजगहमागात् सोऽथान्यदा वनविहारविनोद हेतोः । तत्रोपकाशि मधुमासि च नन्दनस्थ सौधे स नेगिचरितं लिखितं विलोक्य ॥७०॥ धन्यो व्यचिन्तयदहो ! भगवानरिष्ट-- नेमिः कुमार इह यो जगृहे सुदीक्षाम् । सन्निष्क्रमाम्यहमपीति विमृश्य दानं ___ साम्वत्सरं स विततार विरक्तचेताः ॥७॥ मत्वा तत्त्वं नित्यमात्मस्वरूपं भोगानङ्गद्भगवद् भङ्गुरांश्च । दीक्षाकालं वीक्ष्य शुद्धावधिस्व ज्ञानेनेत्थं भावयामास भावम् ॥७२॥ ६८) इस प्रकार क्रोध से जले हुए मन वाले उस पापी पूर्वबद्ध वर से कलषित कमठ की आत्मा यहाँ से भो दुःखी होकर मरकर मिथ्यादृष्टि भवनवासी देवों में मेघमाली नामक अधमदेव हुई। (६९) जिनदेव से ज्ञान प्राप्त करके वह नागदम्पतियुगल मरकर नागराज धरणेन्द्र बना और सर्पिणो उसकी पटरानी बनी क्योंकि बडे आदमियों के संसर्ग का फल अल्प ऐश्वर्य वाला नहीं होता है। (७०) पार्श्वकुमार अपनी सेना सहित अपने घर आ गये। दूसरे दिन वनविहार के मनोरंजन हेतु काशी के समीप चैत्रमास में नन्दनवन के भवन में आये हुए उसने, वहाँ लिखे हुए नेमिचरित को देखा । (७१) उसे देख कर उसने सोचा-धन्य है वे अरिष्ट नेमिकुमार जिन्होंने सुन्दर दीक्षा ग्रहण की। मैं भी दीक्षा ल ऐसा विचार कर उन्होंने विरक्तचित्त होकर साम्वत्सरिक दान किया । (७२-७३) नित्यआत्मस्वरूप तत्व को समझ कर, सांसारिक भोग को क्षणभंगुर जानकर, अपने शुद्ध अवधिज्ञान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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