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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित इत्थं क्रीडाविनोदांश्च कुर्वाणो जगतांपतिः । सह देवकुमारीस्तैरासाञ्चक्रे शुभंयुभिः ॥४१॥ मध्ये सुरकुमारीणां ताराणामिव चन्द्रमाः । शुशुभे भगवान् पाश्वो रममाणो यदृच्छया ॥४२॥ अथाऽसौ यौवनं प्रापागण्यलावण्यसुन्दरम् । स्मरलीलाकुलागारं युवतनर्मकार्मणम् ॥४३॥ विभुर्बमासते सुतरामवाप्य तरुणं क्यः । शशीव कमनीयोऽपि शारदी प्राप्य पूर्णिमाम् ॥४४॥ तदिन्द्रनीलरत्नाभं मलस्वेदविवर्जितम् । वज्रसंहननं दिव्यसंस्थानं शुभ्रशोणितम् ॥४५॥ वपुरद्भुतरूपाढ्य पद्मगन्ध तिबन्धुरम् । अष्टोत्तरसहस्रोद्यल्लक्षणैर्लक्षितं बभौ ॥४६॥ तदप्रमेयवीर्यं च सर्वामय ववर्जितम् । भप्राकृताकृतिधरं शरीरमभवत् प्रभोः ॥४७|| विभोः किरीटशोभात्य शितिकुञ्चितकुन्तलम् । शिरोऽञ्जनगिरेः कूटमिव रेजे मणीमयम् ॥४८॥ (४१) इस प्रकार जगत्पति क्रीडा द्वारा मनोरञ्जन करते हुए उन कल्याणकारी देवकुमारों के साथ स्थित थे। (४२) उन देवकुमारों के मध्य में, तारागणों के मध्य चन्द्रमा की भांति यथेच्छ क्रीड़ा करते हुए भगवान् पाश्वनाथ अतीव शोभित हो रहे थे । (४३) इसके पश्चात् उसने अगणित लावण्य से युक्त, कामक्रीडा के कुलगृहरूप और युवतिजनों के हास्यविनोद के लिए कार्मणरूप यौवन को प्राप्त किया । (४४) वह पार्श्वप्रभु तरुणावस्था को प्राप्त कर इस प्रकार अतीव शोमित थे जैसे चन्द्रमा सुन्दर होने पर भी शरद्कालीन पूर्णिमा को प्राप्त कर अधिक शोभा को प्राप्त होता है । (४५-४६) इन्द्रनीलरत्न के समान सुन्दर, मल एवं पसीने से रहित, पनसंहननवाला, दिव्य संस्थान वाला, शुभ्र शोणित वाला, पद्मगन्ध के समान सुन्दर, अद्भुत रूपलावण्यवाला वह शरीर एक हजार आठ लक्षणों से लक्षित शोभा दे रहा था । (४७) भतुलित पराक्रम वाला, सब प्रकार के रोगों से मुक्त, दिव्य आकृति वाला उस प्रभु का परीर था । (४८) मुकुट की शोभा से सम्पन्न, काले कुञ्चित केशों वाला प्रभु पार्श्व का मस्तक मणिमय अञ्ज नगिरि के शिखर की भाँति शोभा पाता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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