________________
५०
श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
अस्नातपूतस्त्वं विश्वं पुनासि सकलं विभो ! । स्नापितोऽस्यद्य तन्नूनं जगत्पावित्र्यहेतवे ॥ २०१ ॥ पूतस्त्वं जगतामेव पवित्रीकरणक्षमः । उद्योतवान् शशाङ्को हि जगदुद्द्द्योतनक्षमः ॥ २०२॥ अवाग्मनसलक्ष्यं त्वां श्रुतिराह स्म तन्न सत् । दिष्ट्या नः परमं ज्योतिस्त्वं दृग्गोचरतामगाः ॥२०३॥ अभूषणोऽपि सुभगोऽनधीतोऽपि विदांवरः । अदिग्धोsपि सुगन्धाग्रः संस्कारो भक्तिरेव नः || २०४ || यथा ह्याकरजं रत्नं संस्काराद् द्योततेतराम् । गर्भजन्मादि संस्कारैस्तथा त्वं विष्टपत्रये ॥२०५॥ एकोऽपि त्वमनेकात्मा निर्गुणोऽपि गुणैर्युतः । कूटस्थोऽथ न कूटस्थो दुर्लक्ष्यो लक्ष्य एव नः ॥ २०६ ॥ नमस्ते वीतरागाय नमस्ते विश्वमूर्तये । नमः पुराणकवये पुराणपुरुषाय ते ॥२०७॥ निःसंगाय नमस्तुभ्यं वीतद्वेषाय ते नमः । तितिक्षागुणयुक्ताय क्षितिरूपाय ते नमः ॥२०८॥
(२०१) हे विभो ! आप बिना स्नान के ही पवित्र सम्पूर्ण विश्व को पवित्र करते हो । जगत् को पवित्र करने के कारण मात्र से हो निश्चयतः आपको स्नान कराया गया है । (२०२) पवित्र आप ही संसार को पवित्र करने में समर्थ हैं कारण कि प्रकाशमान चन्द्रमा . ही जगत् को प्रकाशित कर सकता है । ( २०३) श्रुति ने आपको वाणी तथा मन से अल-क्षित कहा है, यह सत्य नहीं है । सौभाग्य से परम ज्योतिरूप आप हमें दृष्टिगोचर हुए हैं । ( २०४ ) बिमा आभूषणों से भी आप सुन्दर हैं, बिना पढे हुए भी आप श्रेष्ठ विद्वान् हैं, बिना लेपन के भी आप सुगन्धित हैं तथा हमारी ( २०५) जिस प्रकार खान से निकला हुआ रहता संस्कार से गर्भ, जन्म आदि संस्कारों से आप तीनों लोकों में योतित होते हैं । (२०६ ) एक होते हुए भी आप अनेकात्म हैं, निर्गुण होते हुए भी आम गुणयुक्त हैं, कूटस्थ होते हुए भी आप अकूटस्थ हैं तथा दुर्लक्ष्य होते हुए भी आप लक्ष्य हैं । (२०७ ) वीतराग आपको नमस्कार हो, विश्वमूर्ति भापको नमस्कार हो, पुराणकवि तथा पुराणपुरुषोत्तम आपको नमस्कार हो । (२०८) आसक्तिरहित आपको नमस्कार हो, रागद्वेषरहित आपको नमस्कार हो, सहनशीलता आदि गुणों से युक्त पृथ्वीरूप आपको नमस्कार हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
भक्ति ही आपका संस्कार है । अत्यन्त चमकता है उसी प्रकार
www.jainelibrary.org