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३४.
श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विष्वग् ध्वानतताम्बराः 1 आसन् सुराऽसुराः सेन्द्राः सान्द्रानन्दद्युसुन्दराः ॥७२ ||
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गजदन्ताद्यधः स्थास्तु दिक्कुमार्यः समाययुः । जिनजन्मावर्ज्ञात्वाऽघोलोकात् कम्पितासनाः ॥७३॥
भोगङ्करा भोगवती सुभोगा भोगमालिनी । सुवत्सा व समित्रा च पुष्पमाला च नन्दिता ॥७४॥
जिनं जिनाम्बामानम्य
ताः संवर्तकवायुना ।
सम्मृजन्ति स्म सद्भया क्षेत्रं योजनमण्डलम् ॥७५॥
अथोर्ध्वलोकवासिन्यो मेरुनन्दनसंस्थिताः 1 अभ्येयुर्दिक्कुमार्योऽष्टौ तत्क्षणाच्चलितासनाः
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मेघङ्करा मेघवती सुमेघा मेघमालिनी तोयधरा विचित्रा च वारिषेणा बलाहिका ॥७७॥
॥७६॥
विकुर्व्याऽभ्राणि ता गन्धोदकवृष्टि- वितेनिरे । अवावरीं च पशूनां तत्क्षेत्रे कुसुमाञ्चिताम् ॥७८॥
रुचकद्वीपमध्यस्थ रुचकाद्विशिरः स्थिताः चत्वारिंशदिमास्ताश्च दिविदिग्मध्यकूटगाः
(७२) स्वर्ग में नगाड़े बजने लगे, चारों ओर सुन्दर ध्वनियों से आकाश व्याप्त हुआ । सुर, असुर, सभी भाव और आनन्द की चमक से सौन्दर्यसम्पन्न बन गये । (७३) अपने आसन कम्पित होने पर अवधिज्ञान से जिनप्रभु के जन्म को जानकर गजदन्त आदि के नीचे स्थित दिक्कुमारियाँ अधोलोकसे आयीं । ( ७४-७५ ) भोगङ्गकरा, भोगवतो, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, पुष्पमाला व नन्दिता ये दिक्कन्याएँ जिनदेव तथा जिनमाता को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक सम्वर्तक बायु से योजनपर्यन्त भूमि को पवित्र करती थीं । ( ७६ ) ऊर्ध्वलोक में रहने वालीं मेरुनन्दनस्थित आठों दिक्कुमारियाँ, जिनका आसन कम्पित हो गया था, तत्काल आ पहुँचीं । (७७-७८) मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयधरा, विचित्रा, वारणा, बलाहिका - इन कन्याओं ने बादलों का निर्माण कर, धूलि को दूर करनेवाली पुष्पसम्मिश्रित गन्धोदक की वृष्टि उस क्षेत्र में की । ( ७९ ) रुचकद्वीप के मध्य में स्थित, रुचकपर्वत की चोटी पर रहने वाली, दिग-विदिग्- मध्यवासिनी चालीस वे दिक्कुमारियाँ भी आ पहुँचीं ।
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।।७९ ॥
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