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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
संवेग भवभावेभ्यस्तपस्त्या गौ स्वशक्तितः । वैयावृत्यं व्रतस्थेषु दधौ साधुसमाधिताम् ॥४१॥ अधीतश्रुताभ्यासं श्रुतिभक्ति तथाऽकरोत् । मार्ग प्रभावयामास स्थानानीमानि विंशतिम् ॥४२॥ कारणान्येष सर्वाणि तीर्थकृत्त्वस्य भावयन् । बबन्ध तीर्थकृद्गोत्रं त्रिजगत्क्षेमकारणम् ॥४३॥ स चाऽत्युग्रं तपस्तप्त्वा चिरं सद्भावभावितः । प्रान्ते प्रायोपगमनं कृत्वा प्रतिमया स्थितः ॥ ४४ ॥
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मुनिः क्षीरवण (णे) क्षीरमहाद्रौ सूर्यसम्मुखः । आस्ते स्माऽथ स भिल्लात्मा चिरं स्वकृतदुष्कृतात् ॥४५॥
तमस्तमायां पापस्तु भुक्त्वा नारकयातनाः प्रत्यायुःक्ष तत्र गिरौ कण्ठीरवोऽभवत् ॥४६ ।
अन्यदा विचरंस्तत्र प्राग्विरोधानुबन्धतः ।
स सिंहः प्रतिमास्थस्य मुनेर्द्राक् कण्ठमग्रहीत् ॥४७॥ प्रान्ते विशुद्धलेश्योऽसौ मृत्वाऽभूत् प्राणते दिवि । देवो महाप्रभे याने विंशत्यम्बुधिजीवितः || ४८ ||
(४१) उसने सांसारिक भावों के प्रति वैराग्य को धारण किया, अपनी शक्ति के अनुसार तप और त्याग किया, व्रत में स्थित साधुओं की सेवा की और शुभ समाधि को धारण किया । (४२) श्रुत का अभ्यास किये बिना ही उसने श्रुतभक्ति की (और) मार्ग की प्रभावना की ये हैं बीस स्थान । (४३) तीर्थकृत्त्व के सभी कारणों की भावना (= ध्यान) करते हुए उसने तीनों लोकों का कल्याण करने वाले तीर्थकृतगोत्रकर्म को बाँध लिया । (४४) अत्यन्त उग्र तप करके, बहुत समय तक सद्भावनापूर्वक अन्तकाल में आमरणान्त उपवास करके वह मुनि प्रतिमारूप ध्यान में स्थित रहा । ( ४५-४६) वह मुनि क्षीरवण नामक वन में क्षीरमहापर्वत पर सूर्य के सम्मुख खड़ा था । अपने किये हुए दुष्कर्म के कारण बहुत समय तक तमस्तमा नरक में नारकीय यातमाओं को भोग कर आयु क्षीण होने पर नरक से च्युत होकर उस पापी भिल्लात्मा (कमठ) ने पर्वत के ऊपर सिंह योनि में जन्म लिया । (४७) एक बार घूमते घूमते उस पापी सिंह ने पूर्व जन्म के विरोध के आग्रह से उस पर्वत पर प्रतिमास्थित उस सुनि को कण्ठ से पकड़ लिया । (४४) अन्तसमय में विशुद्धलेश्या वाला वह मुनि मरकर प्राणत नामक देवलोक में महाप्रभ विमान में बीस सागरोपम आयु वाला देव हुआ ।
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