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धर्मग्रन्थों का अस्तित्व एक पूर्व संप्रदाय के अस्तित्व का सूचक है ।।
धम्मपद की अट्ठकथा (२२-८) के अनुसार निर्यन्थ वस्त्रधारी थे। यह प्रसंग पार्श्व की परम्परा के अस्तित्व का ही द्योतन करता है।
पं. कैलासचन्द्रजी ने 'जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका' में पृ. २१ पर लिखा है कि महावीर के समय में भी पाश्व के अनुयायी श्रमण संघ में विद्यमान थे। पं. सुखलालजी ने अपनी पुस्तफ 'चार तीर्थ कर' में भगवती, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन आदि आगमों से महावीर और उनके शिष्य गौतम का पावीपत्यिकों से होने वाले मिलन को लेकर कई रोचक कथाएँ उद्धरित की हैं ।
इसके साथ ही पं. दलसुखभाई मालवणियाजी ने जैन प्रकाश' के उत्थान विशेषांक' में भेंट करने वालों की संख्या ५१० बतायी है, जिनमें ५३ साधु थे।
प्रसंगवः जब जब भो महावीर ने पार्श्व का उल्लेख किया है उन्हें 'पुरुषादानीय' ही विशेषण दिया गया है। इसके साथ ही पापिस्यिक भी महावीर को पार्श्व के समान ही ज्ञानगुणों से सम्पन्न जानकर ही उनके संघ में सम्मिलित हुए थे।
अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने अनेक स्थलों पर यह कहा है कि "जो पूर्व तीथ कर पाश्व ने कहा है वही मैं भी कह रहा हूँ।" इसी प्रकार बुद्ध का भी यही कहना है कि वे पूर्व बुद्धों का अनुसरण करते आये हैं. । अतः ऐसा लगता है कि यह बुद्ध-महावीर की पूर्वकालीनसूचित धर्मपरम्परा पार्श्व की ही थी।
1 "The name itself testifies to the fact that the purvas were
superseded by a new canon, for purva means former, earlier..."
Sacred Books of the East, Vol. XXII, introduction, P. XLIV. 2. भगवान पाव, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ० ६५ । .. 3. व्याख्याप्रज्ञप्ति, आगमोदयसमिति, श. ५. उद्दे. ९. २२७ ।
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He (Buddha), indeed, is reported to have emphatically disowned the authorship of a new teaching, but claimed to be a follower of a doctrine established long ago by former Buddhas. This is usually interpreted as a kind of propaganda device, but it is not quite improbable that a real historical fact underlies these assertions". -Th. Stcherbatsky. The Central Conception of Buddhism, pp. 57-58.
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