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________________ (७) तपगच्छ पट्टावली सूत्रवृत्ति (प्राकृत-संस्कृत)-उपाध्याय श्रीधर्मसागर जी ने भगवान महावीर से प्रारंभ कर जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि तक के निर्गन्थ, कौटिक, चंद्र, वनवासी बढ़ व तपगच्छ का शृंखलाबद्ध इतिहास दिया है। इसकी वृत्ति स्वोपज्ञ है। श्रीहरिविजयसूरिजी ने चार गीतार्थों की परिषद् में इसका निरीक्षण व संशोधन किया था, अतएव यह ग्रन्थ अधिक प्रामाणिक रिना जाता है। यह पट्टावली वि. ध. ल. शा. प्रागरा से प्राप्त ह. लि. प्रति से संग्रहीत की है। रचनाकाल वि० सं० १६१६ है। ग्रन्थकर्ता का परिचय पृ. १७३ में है । इसी के साथ हमने निम्न तीन अनुपूर्तियां भी सम्मिलित करदी हैं। (१) तपागणपतिगुणपद्धति (प्राकृत संस्कृत) उपा० श्रीगुणविजयगणि ने श्रीविजयसेनसूरि व श्रीविजयदेवसूरि के चरित्र वर्णन के रूपमें पूर्व पट्टावली की अनुपूर्ति की है। इसे मैंने वि. ध. ल. ज्ञा, श्रागरा से प्राप्त ह . लि. प्रति व जै० सा० सं० प्र० अहमदाबाद से प्रकाशित श्रीविजयदेवमहास्य के परिशिष्ठ से सम्पादित की है । ग्रन्थकर्ता का परिचय पृ ८२ में है। (२) तपगच्छपट्टावली सूत्रवृत्ति अनुसंधान (संस्कृत-प्राकृत ) उपा० श्री मेघविजयी ने स्वोपज्ञवृत्तियुक्त चारगाथाओं द्वारा श्रीविजयसेनसूरि प्रमुखबार धाचार्यों की जीवनी प्रदर्शित की है। यह, वि० ध० ल. ज्ञा श्रागरा से प्राप्त, कर्ता ने स्वहस्त से लिखित शुद्ध किन्तु जीर्ण प्रति से, मुद्रित की गई है। रचनाकाल वि० सं० १७३२ है । गन्यकर्ता का परिचय पृष्ट १०६ में है। (३) गुरुमाला (संस्कृत)-श्री. य जै० गु० पालिताना के संस्थापक गुरुदेव श्रीचारित्रविजय जी महाराज ने इस गन्थ में भगवान् महावीर से लेकर अपने दादागुरु श्रविजयकमलसूरि तक के पट्टधरों का परिचय दिया है। साथ ही में पट्टधरों के समकालीन साधुओं की भी गणना दी है। मैंने उस गन्थ में से केवल हीरविजयसूरि से प्रारंभ कर अंत तक के भाग को उद्धृत किया है। (5) श्रीमहावीर पट्टपरंपरा (संस्कृत)-श्रीदेवविमलगणि विरचित एवं नि. सा. प्रेस बम्बई से मुदित “हीरसौभाग्य" काव्य के चौथे सर्ग को यहां पर मैंने अक्षरशः उद्धृत किया है । जिसमें भगवान् महावीर से लेकर श्रीविजयहीरसूरि तक के प्राचार्यो को नामावली है। उसकी विशद एवं सोपज्ञ वृत्ति से मैंने यहां पर उपयुक्त भागमात्र ही गहण किया है । इसकी रचना के विषय में यह विशेषता है कि इसका प्रारंभ करीब वि.सं. १६३६ में हुआ था और अंत करीब १६५६ में। क्योंकि धर्मसागरगणि रचित तपागच्छ पट्टावली में इसका उल्लेख है और १६५६ तक की कुछ घटनाओं का वर्णन भी इसमें मिलता है। गन्धकर्ता का परिचय पृ० १७३ में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002624
Book TitlePattavali Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay, Gyanvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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