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________________ उपक्रम यह एक प्रति स्पष्ट बान है कि किसी भी धर्म-समाज या राष्ट्र का जीवन केवल वर्तमान कालीन परिस्थिति में ही परिसीमित नहीं होता, बरन् उसके पीछे अतीव विस्तृत भूतकाल होता है और आगे निःसीम भविष्यकाल । भूतकाल को सुचारुतया ज्ञात करने का एक मात्र साधन है उसके इतिहास का तुलनात्मक ज्ञान एवं ऐतिहासिक महापुरुषों का चरित्रावलोकन । भविष्य की रूपरेखाका ज्ञान भी. पूर्व इतिहास की बुनियाद के ऊपर चुने हुए विचारपूर्ण मनोमंथन के ऊपर निर्भरित है। इस तरह भूत और भविष्य दोनों ही के लिये इतिहास का ठोस ज्ञान अनिवार्य है, और इसी कारण से इतिहास एक अति महत्वपूर्ण एवं प्रावश्यकीय विषय माना जाता है। _इतिहास के धूरिण पौर्वात्य व पाश्चात्य विद्वानों का यह अनुभवपूर्ण कथन है कि-जैन इतिहास के अलावा भारतीय इतिहास अपूर्ण है। अतएव जैन इतिहास के अभ्यास में उपयुक्त हों ऐसे-शिलालेख, पट्टावली, प्रशस्ति, सिके एवं राससंग्रह प्रादि विषयक गन्थरत्न तैयार कराना जैन समाज के लिये अतीव आवश्यक है । इसी विचारजन्य प्रेरणा से, उपलब्ध किन्तु अमुद्रित पट्टावलियों के प्रकाशनरूप में 'पट्टावली समुच्चय" नामक ग्रन्थ तैयार करने की योजना की गई है। यह ग्रन्थ क्रमशः कई भानों में प्रकारित होगा, और इसमें निष्पक्षरित्या, केवल ऐतिहासिक रष्टि से यथोपलब्ध हरेक जैन मत एवं गच्छ की पहावलियों का समावेश होगा।। आज मैं इसी योजना के फलस्वरूप “पहावली समुच्चय" के प्रथम भाग को पुरातत्व के अभिलाषियों के सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ। इसमें कुल तेरह पट्टावलियां दी गई हैं। __"कल्पसूत्र स्थविरावली" व "नंदिसूत्र पट्टावली" ये दोनों देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की (१) गणधरवंशीय तथा (२) वाचकवंशीय पट्टावलियां हैं, जिनके ऊपर, जैनधर्म के क्रमिक विकास की ओर दृष्टिपात करने वाले की दृष्टि प्रथम ही स्थिर होती है। ___ मैंने उपयुक्त दोनों पदावलियों को मुख्य मान कर १३ पहावलियां, इस भागमें संगृहीत एवं संपादित की है। जिनमें तीन वाचकवंश की है और शेष दस गणधरवंश की । इन सब का क्रम इस प्रकार है (१) कप्पसुत्त थेरावली (प्राकृत)-चतुर्दशपूर्वधारी श्री भद्रबाहु स्वामी ने नवम पूर्वसे दशा श्रुनस्कंध उद्धृत किया, जिसके आठवें अध्ययन में कल्पसूत्र की रचना हुई । प्रस्तुत प्रन्थ का समावेश उसी कल्पसूत्र में होता है । पश्चात् उस परंपरा में, देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वी० नि० सं० १८० को वल्लभवाचना में विद्यमान एवं अपने नाम तक के गणनायकों की पहावली योजिन कीरद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002624
Book TitlePattavali Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay, Gyanvijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size11 MB
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