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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] परिशिष्ट-१ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ७३६ महानिर्ग्रन्थ-तीर्थङ्कर। महाभद्र प्रतिमा-ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार । चारों ही दिशाओं में क्रमशः एक एक अहोरात्र तक कायोत्सर्ग करना। महाप्रतिमा तप-देखें. एक रात्रि प्रतिमा। महा विदेह क्षेत्र-देखें, जम्बूद्वीप। महावत–हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का मनसा, वाचा, कर्मणा जीवन पर्यन्त परित्याग । हिंसा आदि को पूर्ण त्याग किये जाने से इन्हें महाव्रत कहा जाता है। गृहस्थवास का त्याग कर साधना में प्रवृत्त होने वालों का यह शील है। महासिंह निष्क्रीडित तप-तप करने का एक प्रकार। सिंह गमन करता हुआ जैसे पीछे मुड़ कर देखता है; उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही पीछे किया हुआ तप भी करना । यह महा और लघु दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक लह दिन का तप होता है और फिर उसी क्रम से उतार होता है । समग्र तप में १ वर्ष ६ महीने और १८ दिन लगते हैं । इस तप की भी चार परिपाटी होती हैं। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। माण्डलिक राजा-एक मण्डल का अधिपति राजा। मानुषोत्तर पर्वत-जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र है, लवण समुद्र को घेरे हुए घातकी खण्ड है, घातकीखण्ड द्वीप को घेरे हुए कालोदधि है और कालोदधि को घेरे हुए पुष्कर द्वीप है। पुष्कर द्वीप के मध्वोमध्य मानुषोतर पर्वत है, जो द्वीप को दो भागों में विभक्त करता है। मनुष्य-लोक एवं समय क्षेत्र की सीमारेखा भी यही पर्वत बनता है। इस पर्वत के बाहर जंघाचारण, विद्याचारण साधुओं के अतिरिक्त कोई भी मनुष्य देव-शक्ति के आवलम्बन बिना नहीं जा सकता। मार्ग-ज्ञानादिरूप मोक्ष-मार्ग । मासिकी मिक्ष प्रतिमा-साधु द्वारा एक महीने तक एक दत्ति (आहार-पानी के ग्रहण से से सम्बन्धित विधि विशेष) आहार और एक दत्ति पानी ग्रहण करने की प्रतिज्ञा। मिथ्यात्व-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा। मिथ्यादर्शन शल्य-देखें, शल्य । मूल गुण-वे व्रत, जो चारित्ररूप वृक्ष के मूल (जड़) के समान होते हैं । साधु के लिए पांच महात्रत और श्रावक के लिए पांच अणुव्रत मूल गुण हैं। मेरुपर्वत की चूलिका-जम्बूद्वीप के मध्य भाग में एक लाख योजन समुन्नत व स्वर्ण-कान्ति मय पर्वत है। इसी पर्वत के ऊपर चालीस योजन की चूलिका-चोटी है। इसी पर्वत पर भद्रशाल, नन्दन, सोमनस और पाण्डुक नामक चार वन हैं, भद्रशाल वन धरती के बराबर पर्वत को घेरे हुए है । पाँच सौ योजना ऊपर नन्दन वन है, जहाँ क्रीड़ा करने के लिए देवता भी आया करते हैं। बासठ हजार पाँच सौ योजन ऊपर सौमनस वन है। चूलिका के चारों ओर फैला हुआ पाण्डुक वन है। उसी वन में स्वर्णमय चार शिलायें हैं, जिन पर तीर्थङ्करों के जन्म-महोत्सव होते हैं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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