________________
अंग-देखें, द्वादशांगी। अकल्पनीय-सदोष। अकेवली-केवलज्ञान-प्राप्ति से पूर्व की अवस्था । अक्षीण महानसिक लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति। प्राप्त
अन्न को जब तक तपस्वी स्वयं न खा ले, तब तक उस अन्न से शतशः व सहस्रशः
व्यक्तियों को भी तृप्त किया जा सकता है। अगुरुलघु-न बड़ापन और न छोटापन। अधाती-कर्म-आत्मा के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुणों का घात न करने वाले कर्म
अघाती कहलाते हैं। वे चार हैं-१. वेदनीय, २. आयुष्य, ३. नाम और ४. गोत्र ।
देखें, घातीकर्म। अचित-निर्जीव पदार्थ । अचेलक-वस्त्र-रहित । अल्प वस्त्र । अच्युत-बारहवाँ स्वर्ग । देखें, देव । अट्ठम तप-तीन दिन का उपवास, तेला। अणवत-हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का यथाशक्ति एकदेशीय परित्याग ।
यह शील गृहस्थ श्रावकों का है। अतिचार-व्रत-भंग के लिए सामग्री संयोजित करना अथवा एक देश से व्रत खण्डित
करना। अतिशय-सामान्यतया मनुष्य में होने वाली असाधारण विशेषताओं से भी अत्यधिक
विशिष्टता। अनगारधर्म-अपवाद-रहित स्वीकृत व्रत-चर्या । अध्यवसाय-विचार। अनशन-यावज्जीवन के लिए चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना। अनिर्हारिम--देखें, पादोपगमन । अनीक- सेना और सेनापति । युद्ध-प्रसंग पर इन्हें गन्धर्व-नर्तक आदि बन कर लड़ना
पड़ता है। मन्तराय कर्म-जो कर्म उदय में आने पर प्राप्त होने वाले लाम आदि में बाधा
__ डालते हैं। अपवर्वन-कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग-फन निमित्तक शक्ति में हानि ।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org