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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक यादव-कुमारों ने उससे पूछा-.-"इतनी बढ़िया मदिरा तुम्हें कहाँ प्राप्त हो गई ? द्वारिका मैं तो महाराज की आज्ञा से मदिरा-पान सर्वथा वजित है।" परिचर बोला- "स्वामिवन्द ! कदंब वन की कादंबरी गुफा में नैसर्गिक शिलाकुंडों में विपुल मात्रा में मदिरा पड़ी है, जहाँ से मैं यह लेता आया।" यादव कुमार नशे में पागल यादव-कुमारों को बहुत दिनों के पश्चात् थोड़ी-सी मदिरा पीने को मिली थी। वे पर्याप्त मदिरा पान हेतु लोलुप हो उठे । मद्यपान-गोष्ठी आयोजित की। सीधे कदंब वन में कादंबरी गुफा के समीप पहुँचे। सबने छककर मदिरा-पान किया। नशे में पागल हो उठे। गाते-बजाते, आनन्द मनाते नगर की ओर चल पड़े। मार्ग में द्वैपायन ऋषि पर उनकी नजर पड़ी। उसे देखते ही सब क्रुद्ध हो उठे, कहने लगे-"अरे ! यही तो वह है, जिसके कारण द्वारिका का विनाश होगा। इसे मार-मार कर हमें समाप्त कर डालना चाहिए।" ___ सबके सब द्वैपायन ऋषि पर टूट पड़े। कई थप्पड़ों से, मुक्कों से, कई लातों से ऋषि को पीटने लगे। कुछ देर तक तो ऋषि ने मार सही, पर, जब वे मारते-मारते रुके नहीं और पीड़ा सह जाने की सीमा को लांघ गई तो ऋषि ने क्रुद्ध होकर संपूर्ण द्वारिका को भस्म कर डालने का निदान किया। द्वैपायन का कोप तापस को अर्धमृत छोड़कर यादवकुमार द्वारिका में आ गये । वासुदेव कृष्ण को जब यह घटना ज्ञात हुई तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे अपने ज्येष्ठ बन्धु बलराम को साथ लिये द्वैपायन ऋषि का क्रोध शान्त करने हेतु आये। वे ऋषि से क्षमा-याचना करने लगे। श्रीकृष्ण बोले-"ऋषे ! यादव-कुमारों ने बड़ी धृष्टता की, उद्दण्डत। की। मुझे इसका बड़ा खेद है। आप शान्त हों, क्षमा करें।" द्वैपायन- "तुम जो मीठे वचन इस समय बोल रहे हो, उससे मेरी क्रोधाग्नि और अधिक भड़क रही है। कुमारों को तुम्हें पहले ही नियंत्रित रखना चाहिए था। निरपराध तपस्वी प्रताड़ित किये जाएँ, क्या यही तुम्हारा राजधर्म है ?" श्रीकृष्ण-"तपस्विन् ! मैं वायदा करता हूँ, कुमारों को दंड दूंगा।" द्वैपायन ने श्रीकृष्ण की बात काटते हुए कहा- “दंड तो मैं दूंगा, भारी द्वारिका को भस्म कर डालूंगा । न द्वारिका ही रहेगी और न यादवकुमार ही रहेगे।" श्रीकृष्ण-"तपस्विन् ! शान्त हो जाइए । क्रोध राक्षस है । वह जीवन-भर की तपस्या को नष्ट कर डालता है।" द्वैपायन-'वह तो नष्ट हो गई है। मैंने द्वारिका को भस्म करने का निदान कर लिया है।" श्रीकृष्ण ने नम्रतापूर्वक कहा-तपस्विन् ! अब भी समय हाथ में है। आलोचनाप्रत्यालोचना कर आप निदान को मिथ्या कर सकते हैं।" द्वैपायन-"अब ऐसा नहीं कर सकता । एक शान्त तपस्वी के क्रोध की अग्नि किस प्रकार प्रलय के शोले बनकर बरस सकती है, अवश्य ही द्वारिका यह देखेगी। तपस्वी द्वैपायन इतना क्रोधाविष्ट था कि उसके नेत्रों से मानो अंगारे बरस रहे थे। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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