SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनिर्मितम्] चतुस्त्रिंशजिनातिशयस्तवनम् (८ पइ पयहिए पयत्थे परिछिदइक्कोण अन्नतिस्थिसु । हत्थद्वियकंकणयं को पुण जोएइ आरिसए ॥ २७ ॥ पई दुट्ठा पाविट्ठा सव्वत्थवि दुक्खमेव पावंति । भिज्जइ सच्चिय डाला जहिं चडइ कवेडओ देव ! ॥२८॥ तिजयप्पहु ! तुह मयमंतरेण अचिरेण सिजइ न मुक्खो । नहु अंबाणं सद्धा पूरिजइ अंबिलीआहिं ॥ २९ ॥ गाहिजंतो अमयं व सुहयरं नाह ! तुह वरं धम्म । गिण्हामि नेव अहयं मूढो निब्भग्गसेहरओ ॥३०॥ ता सच्चं ओहाणं फाडिज्जइ घेउरेहिं गल्लाइं। पाइज्जतो वि घयं बुब्बुयइ सच्चयं अहवा ॥३१॥ किं बहुणा भणिअणं नन्नं मग्गेमि देसु चारित्तं । जेण भणिज्जइ सव्वे पया पविद्वा उ हत्थिपए ॥३२॥ इय कइवयओहाणएहिं थुणिओ जिणिंद ! भव्वाणं । . संसारविरत्ताणं सामिय ! सुमयं गयं देसु ॥३३॥ इति ओहाणबंधेन स्तोत्रम् ॥ [२६] चतुर्विंशजिनातिशयस्तवनम्। थोस्सामि जिणवरिंदे अब्भुअभूएहिं अइसयगुणेहिं । ते तिविहा साहाविय कम्मक्खइआ सुरकया य ॥ १ ॥ देहे विमलसुगन्धं आमयपासेहिं वज्जिअं अरअं। . रुहिरं गोक्खीराभं निव्विस्सं पंडुरं मंसं ॥ २ ॥
SR No.002613
Book TitleJainstotrasandohe Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1932
Total Pages662
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy