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सिरि- हरिभद्दसूरि- विरइउ
नेमिनाहचरिउ
[१९३०]
अह समासिण नवम-भव भावि
तंतु नेमहि पहुहु तत्थ य किल नेमि - जिणु
इय पढमं चिय अक्खियय जह पुथ्विल्ल महाकइ हिं
संखाइय निव-सह
कोसंविनियरियहिं
भण्णमाणु सुण एग - चित्तिण । समवइण्णु हरिवंसिस कइण ॥ हरि-वंसह उत्पत्ति । भणिय अस्थि सिद्धति ॥
[१९३१]
उ सह-भरहहं वइसि अइकंत
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तयणु तित्थि सीयल - जिर्णिदह | आसि निवइ गुरु राय - विंदह ॥
रूत्र - विणिज्जिय-विसमसरु पसरिय-तेय - निहाणु । - जहिहि विवसुमइहि * सामि सुमुह-अभिहाणु ॥
[१९३२]
अवर - अवसरि रायवाडीए
गच्छंतु नराहिवर नियइ दइय वीरय - कुविंदह । aणमा - नामिण पड मुहिण सरिस दलियारविंदह || अह अणुरयाउर - मणिण अवहरेवि सा वाल | निवरण अंतेउरि खिविय सोहग्गेण विसाल ॥
[१९३३]
तय पंच वि विसय सेवेइ
सह ती नराeिas गच्छमाणु दिणु निसि व अ-मुरुि ।
अ- नियंतउ निय-दइय
कह कह धरहं न परियडिउ
विरह-विहरु वीरो वि विलविरु ॥ कह कह जगि न विगुत्तु । कुव्वंतर पुणरुत्तु ॥
aणमालह नाम गगहणु * From here upto १९३१. १. क. उसह•
अमुणिरु in 1933 क is mostly illegible.
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