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१८९५ ]
सत्तमभवि संखवुत्तंति महावोरचरिउ
[१८९२] जहिं मुह-मंडव सोहहिं चउदिसि मण-हरण । पुरउ वि पच्छा मंडव वर-यंभाहरण ॥ पथिम-थूभ-वीरक्ख-महिंद-ज्झय-पवर । एवमाइ नदीसर-जिणहर-सरिस पर ।
[१८९३]
तम्मि तारिसि भरह-जिण-भवणि सिरि-गोयम-सामि घण- गहिर-झुणिण वंदेइ जिण-वर । अवरे वि पहुत्त जिण- वंदणत्थु तर्हि अमर-नहयर ॥ अह जिण-चरहे अवग्गहह वहिहि ठाउ गणहारि । तियसासुर-नहयरहं तहं कहइ धम्मु सुह-कारि ॥
[१८९४]
तत्थ सयल वि निसि गमावेवि उदयम्मि दिवायरह गणहरिंदु उत्तरण लग्गउ । पेक्खंतहं तावसहं तस्सु महिम स-मरटु भग्गउ ॥ नियड-पहुत्तह गोयमहु पुणु पणमेप्पिणु पाय । दिक्ख पवज्जहिं पनरस वि तावस-सय किस-काय ॥
[१८९५]
तयणु गोयमु गुण नियंतु तइलोय-चूडामणिहि पुरउ ताहं तावसई सयलहं । एगम्मि महा-नयरि मज्झ-दियहि संपत्तु तावहं ।। पुरउ पयंपइ तावसहं तुम्हहं भोयणु अज्जु । किं दिज्जउ इयरि वि भणहिं जह पायसु निरवज्जु ॥ १८९२. व. क. पुरको. ३. पडिम, बीमुक्त्व,
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