________________
१८४०]
सत्तमभवि संखवुत्तंति महावीरचरिउ
[१८३७]
अह निसग्गिय विणय-तोरविय जल-भायणु घेत्तु करि सेटि-चलण धोवेइ चंदण । जा ताव तहि चिहुर-भरु छुट्टमाणु पिक्खेवि सेट्ठिण ॥ मा कदमि निवडिहइ इहु इय परिचितंतेण । लीलालयहं गहेवि लहु वद्ध धणावहएण ।।
_ [१८३८]
तावलोयण-ठियहि मूलाए इहु दछु विचिंतियउं नूण कज्जु चिट्ठइ विण?उं । जं दुण्ह-वि विलसियां इमह एहु सयमवि-हु दिट्ठउं ।। इय तरुणु वि छिज्जंतु विस- विडवि सुहावहु होइ । जणिण उविक्खिज्जंतु पुणु अ-सुहु पयासइ लोइ ।।
अधि य -
[१८३९] वरि हउं मुय वरि हउं म जाय वरि विस-हरि खद्धी । वरि उभा- सूलियहं भिन्न वरि हुयवहि दद्धी ॥ वरि उध्वंधिय रुक्ख-डालि वरि खड्डहं घल्लिय । मं मई दिदठु सवत्ति-जुत्तु पिउ हियडा-सल्लिय ॥
[१८४०]
इय विचिंतिर घरह वाहिम्मि नीहरियइ वणि-पवरि गरुय-रोस उभंत-लोयण । निय-परियणु ताडिउण तियस-सिहरि-गुरु-पाव-भायण ॥ मुंडावेविणु चिहुर-भरु नियलाविवि नियलेहिं । मज्झि पवेसाविवि घरहं चंदण ठविय खले हिं ॥
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org