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१५८२]
सत्तमभवि संखवुत्तंतु
[१५७९]
जणु सुहावहिं मुहह नीसास किं मलयानिल-भरिण दंत किरण धवलहिं कि चंदिण । अहरो विहु रंजवइ जगु वि कइण किं अंग-रागिण ॥ रसण-पउ च्चिय मिउ फरिसु नूण मयण-सयणिज्जु । नह-मणि-किरण च्चिय कुणहिं कुसुमुवयारह कज्जु ॥
[१५८०] अवि य
तरल नयणिहिं कुडिल केसेहि थण-जुयलिण पुणु कठिण तुच्छ-रूव मज्झ-प्पएसिण । अच्चंतं वाउलिय
देव-पूय-गुरु-विणय-हरिसिण ॥ इय सा सयलु वि जगु जिणइ निय-गुण-दोस-सएण । अवरम्मि उ अवसरि कह-वि केण वि विहिहि वसेण ॥
[१५८१]
सयल-महियल-फुरिय-कित्तिस्सु सिरिसेण-नराहिवइ- सुयह संख-अभिहाण-पयडह । गुण-रयणिहिं सहुँ विसहिं विसम वाण तमु निवइ-दुहियह ॥ तह जह कहमवि न-वि मुयइ संख-कुमार-ज्झाणु । चिट्ठइ जसमइ जोगिणि व सोसंती अप्पाणु ॥
[१५८२]
ता नरिंदिण समय-जोगेण निय-धृयह मणु मुणिवि भणिउ - वच्छि तुहुं मा विनरसु । उत्तारिवि निय-मणह खेउ सयलु वीसत्थ चिट्ठसु ॥ जं तुह निय-कुल-गयण-ससि- लेहह एहु पडिवंधु । जुत्तु च्चिय इय तुम्ह लहु कारवेसु संवधु ॥ १५८२. ३. क. ख. भणि.
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