________________
६६५ ]
तइयभवि विप्तगइत्तंति सणतुकुमारचरिउ
[६६२] तसु पसाइण तुहुं वि निच्चितु
स- कुटुंब - रज्जहं बिसइ
कहसु
ता जंपिउ मई ता आइड मुणि वरिण पाडिजिहिहि महाडइहिं
-
आयइट - उत्तिम चरिय
माणस -सरि मुच्चिसइअसिक्ख जक्खह निययसो जाणिज्जसु निय-दुहिय
[६६३]
चिर- समज्जिय- सुकय- माहप्प
[६६४] भणिउ मई
नर - रयण तव असियक्त्व - जक्खु सो हुयउ वइरिउ ।
ता सूरिण भणिउ – नणु जायइ सयलस्सु वि जयह एत्थ वि खयराहिवर तुहुं
अप्पु चैव सुह असुह - पेरिउ ॥ सुहि सत्तु व जिय-लोइ । देउ इमो च्चिय जोइ ॥
ताहि
पणय-पिउ दाण- रुइ सारय- रयणीयर - सरिसआसि नराहिषु जय-पयडु
होउ होसि सद्धम्म- साहणु । साहु-वसह तसु मुणण-कारणु ॥ जो तुरइण हरिण । तत्तु वि आऊण |
६६२. १. क. तुंह. ६६४. ३. क. वरिउ
Jain Education International 2010_05
विजिय-जगिण उचियत्त-दक्खिण | करयलेण कमलक्ख - जक्खिण || रिउहु जु हणिहइ दप्पु । हियय-पिउ अविय ॥
―
[६६५ ]
दीवि एत्थ विकणयपुर-नयरि नियतेय - निज्जिय- तरणि फुरिय-कित्ति पडिवक्ख-खंडणु । धीर-चरिउ दुन्नय- विहंडणु ॥ बहु-गुण- रयण-निहाणु । विक्कमनस-अभिहाणु ॥
- अह किह णु मुणि-नाह
For Private & Personal Use Only
१६७
www.jainelibrary.org