________________
१६४
[६५०
नेमिनाहचरिउ ।
[६५०]
इय विचित्तर्हि वयण-रयणाहिं जपंत वि मंति-वर अवगणेवि सो खयर-सामिउ । चउरंगिण वल-भरिण चलिउ कुविय-विहि-रज्जु-दामिउ ॥ समग-समाहय-विष्फुरिय- समर-तूर-निग्घोसु । पुव्व-पयट्ट-अणेग-रण- सत्तु-विजय-संतोसु ॥
[६५१]
फुरिय-गरुयर-विविह-अवसउणपडिसिद्ध वि सुय-मरण- असुह-तिमिर-आवरिय-लोयणु । लहु पत्तु महाडइहिं तीए उवरि तोरविय-संदणु ।। अह जा खयराहिव-सहिउ कुमरु उद्ध जोएइ । भुवण-भयंकर ता गयणि कोलाहल निमुणेइ ॥
[६५२]
तयणु किं एहु फुटु वंभंडु वेयालु व कु-वि कुविउ जलनिहि व्व खुहियउ अयंडि वि । जं सुम्मइ पलय-घण- गहिरु सदु ठिउ भुवणु भंडिवि ॥ इय-चिंतिर-खयराहिविहिं सहिउ सु सणतुकुमारु । जा चिट्ठइ ता खणिण तहिं पत्तु सु नहयर-सारु ॥
[६५३]
अह खण द्धिण विहिय-संनाह विज्जाहर-पहु ति दुवि चंडवेग-सिरिभाणुवेगय । खयरिंदिण तेण सह दुक्क नियय-सेन्नेण संगय ।। किंतु खणेण वि दो वि तिण असणिवेग-खयरेण । हय-विप्पहय विहिय घण व झंझाणिल-पसरेण ॥ ६५२. ५. गहिसदु. ९. क. नहयरु.
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org