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जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान हो या गांव चलकर पाया है।" तात्पर्य यही है कि लोक व्यवहार से यह कहना प्रसिद्ध नहीं है । अतः यह सत्य का ही एक भेद है। .
८. भाव-सत्य-यथावस्थित इन्द्रिय सापेक्ष कथन । जैसे-हँस धोला है, कज्जल काला है । पर यह यथावस्थित कथन भी स्थूल दृष्टि की अपेक्षा से है । सूक्ष्म दृष्टि वहाँ भी उपेक्षित है । उसके अनुसार तो हंस और कज्जल में भी पाँच वर्ण हैं।
६. योग-सत्य-दो या दो से अधिक वस्तुओं के योग से जो संज्ञा बनी हो । तत्पश्चात् उस योग के अभाव में भी उस संज्ञा का प्रयोग योग-सत्य है । जैसे-दण्डी, छत्री, स्वर्णकार, चर्मकार आदि।
१०. उपमा-सत्य-उपमा अलंकार आदि सारी साहित्यिक कल्पनायें इस सत्य में अन्तनिहित हैं । इसके चार विकल्प हैं-उपमा सद् उपमेय असद्, उपमा असद् उपमेय सद्, दोनों सद् और दोनों असद् । .
निरपेक्ष व सम्पूर्ण सत्य । भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विचारक सर राधाकृष्णन ने स्याद्वाद के विषय में लिखा है, "स्याद्वाद निरपेक्ष या सम्पूर्ण सत्य की कल्पना किये बिना तर्क के धरातल पर नहीं ठहर सकता · · । वह आपेक्षिक सत्यों को पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा देता है।" १ यह एक धारणा जो राधाकृष्णन् जैसे मनीषी की बनी, लगता है सापेक्षवाद उन्हें स्याद्वाद सम्बन्धी उक्त निर्णय पर पुनः सोचने को प्रेरित करेगा।
जहाँ इनकी धारणा है निरपेक्ष सत्य को माने बिना काम नहीं चलता वहाँ सापेक्षवाद बताता है-"परमार्थ मन की कल्पना मात्र है । परमार्थ को प्राकृतिक वस्तुओं और नियमों पर जब हम लादने की कोशिश करते हैं तो यही नहीं कि हम वस्तु सत्य को छोड़ आकाश में उड़ने लगते हैं बल्कि उल्टी धारणाओं के शिकार हो जाते है । लेकिन वस्तुओं और उनके गुणों की सापेक्षता का मतलब यह नहीं है कि हम
___1. The theory of relativity cannot be logically sustained without the hypothesis of an absolute..............The Jains admit that things are one in their universal aspect (jati or karana) and many in their particular aspect (vyakti or karya). Both these, according to them are partial points of view. A plurality of reals is admittedly a relative truth. We must rise to the complete point of view and look at the hole with all the wealth of its attitudes. If Jainism stope short with plurality, which is at best a relative and partial truth. and does not ask whether there is any higher truth pointing to a one which particularises itself in the objects of the world, connected with one another vitally essentially and immanently, it throw over board. its own logic and exalts a relative truth into an absolute one.
-Indian Philosophy Vol. I. p. 305, 306
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