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________________ २० जैन दर्शन श्रोर श्राधुनिक विज्ञान है । फिर दिशा बदलने से लम्बाई का फर्क होता है, यह अभी कह चुके हैं। साथ ही तापमान के परिवर्तन से धातुओं का फैलना सिकुड़ना लाज़मी है और समयान्तर में भीतरी परमाणुत्रों की स्थिति में जो लगातार अन्तर पड़ रहा है, वह भी मान में अन्तर डालता है । खुद नापी जाने वाली जमीन के बारे में तो यह बात और भी सच है क्योंकि वह प्लाटिनम जैसी दृढ़ता नहीं रखती और नापने वाला तो यदि अपने प्रजारों की बात को न माने तो “मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना" कहावत के अनुसार हर एक नापने वाला अपना अपना अलग ही परिणाम बतलायेगा । किसी नापी (मापदण्ड) को सच्चा मानने के वक्त हम उसे परमार्थ की कसौटी पर नहीं कसने लगते, क्योंकि यह कसौटी मनुष्य की कल्पना के सिवाय और कहीं है ही नहीं । हम नापी के परिणाम को बिलकुल झूठ कहकर उसे व्यवहार से बहिष्कृत नहीं कर सकते हैं । हमारा सच्चा मान वह है जो कि भिन्न भिन्न नापियों का माध्यम ( औसत ) है । सावधानी के साथ जितनी अधिक नापियाँ की जायेंगी, माध्यम उतना ही ठीक होगा; और जो नापी इस माध्यम के समीप होगी वही सत्य होगी। इन बातों से यह तो पता लग गया कि तार्किकों ने वास्तविकता की अच्छी तरह छानबीन किए बिना जो सिर्फ तर्क से किसी बात को स्वयं सिद्ध कर डाला है, वह उन्हीं के शब्दों में मान लेने लायक नहीं है । हमारी उक्त परिभाषाएँ ठीक हो सकती हैं यदि उन्हें परमार्थ- सत्य मानने की जगह हम सापेक्ष सत्य कहें। अधिक वक्र की अपेक्षा कोई रेखा सरल हो सकती है । अधिक मोटे बिन्दुओं या अत्यन्त क्षुद्र रेखाओं की अपेक्षा किसी बिन्दु की लम्बाई, चौड़ाई को हम नगण्य समझ सकते हैं । हमारे सभी माप तोल सापेक्ष हैं ।" स्याद्वाद भी उक्त प्रकार की अपेक्षात्मक समीक्षात्रों से भरा पड़ा है । जैन आगम श्रीपन्नवरणा सूत्र में सत्य के भी दस भेद कर दिये गये हैं । जहाँ सापेक्षवादी व्यावहारिक माप तोल आदि को कुछ डरते हुए से सत्य में समाविष्ट करने लगते हैं वहाँ लगभग सभी प्रकार का प्रापेक्षिक सत्य दस भागों में विभक्त कर दिया गया है। दस भाग इस प्रकार हैं १. जनपद - सत्य (देश सापेक्ष सत्य ) – भिन्न भिन्न देशों की भिन्न भिन्न भाषाएँ होती हैं ! श्रतः प्रत्येक पदार्थ के भिन्न भिन्न नाम हो जाते हैं पर वे सब अपने अपने देश की अपेक्षा से सत्य हैं । कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जो क्षेत्र भेद से एक दूसरे के विपरीत अर्थवाची हो जाते हैं—जैसे साधारणतया पिता को 'बापू' कहा जाता है । कुछ क्षेत्रों में छोटे बच्चे को उसका पिता व अन्य 'बापू' कहते हैं पर वे जनपद सत्य के अन्तर्गत आ जाने से असत्य नहीं कहे जाते । १. विश्व की रूपरेखा अध्याय १ सापेक्षवाद । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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