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________________ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान उसी पुस्तक में आगे वे सत्य व वास्तविक सत्य को सुस्पष्ट करते हुए लिखते हैं"तुम किसी कम्पनी के आय-व्यय का चिट्ठा लो जो गणितज्ञ के द्वारा परीक्षित है। तुम कहोगे यह सत्य है पर वह वास्तव में सत्य है क्या ? मैं यह किसी धूर्त कम्पनी के लिये नहीं कह रहा हूँ पर सच्ची कम्पनी के चिठे में भी वस्तुओं की उस क्षण की कीमत और उसकी अंकित कीमत में महान् अन्तर होगा अत: हीडन रिजर्व (Hidden reserves) की दृष्टि से जितनी अधिक सच्ची कम्पनी होगी वह उतना ही अधिक होगा।" ___ स्याद्धाद के क्षेत्र में भगवान् महावीर ने सैंकड़ों प्रश्नों का उत्तर अपेक्षाओं के आधार पर विभिन्न प्रकार से दिया । सृष्टि के मूलभूत सिद्धान्तों को भी उन्होंने सापेक्ष बताया 1 परमाणु नित्य (शाश्वत) है या अनित्य-इस प्रश्न पर उन्होंने बताया'वह' नित्य भी है और अनित्य भी । द्रव्यत्व की अपेक्षा से वह नित्य है । वर्ण पर्याय (बाह्य स्वरूप) आदि की अपेक्षा से अनित्य है। प्रति क्षण परिवर्तनशील है।" यही उत्तर भगवान् महावीर ने आत्मा के विषय में दिया । प्राकृतिक स्थितियों के विषय में पाईंस्टीन भी अपेक्षा-प्रधान बात कहते हैं। सापेक्षवाद के पहले सूत्र में उन्होंने यह कहा-"प्रकृति ऐसी है कि किसी भी प्रयोग के द्वारा चाहे वह कैसा ही क्यों न हो वास्तविक गति का निर्णय असम्भव ही है, ।" ऐसा क्यों ? इसका उत्तर सर जेम्स जीन्स के शब्दों में पढ़िये-“गति और स्थिति प्रापेक्षिक धर्म है । एक जहाज जो स्थित है वह पृथ्वी की अपेक्षा से ही स्थिर है लेकिन पृथ्वी सूर्य की अपेक्षा से गति में है और जहाज भी इसके साथ । यदि पृथ्वी भी सर्य के चारों ओर घमने से रुक जाये तो जहाज सूर्य की अपेक्षा स्थिर हो जायेगा किन्तु दोनों तब भी इर्द गिर्द के तारों की अपेक्षा गति करते रहेंगे । स्र्य भी यदि गति-शून्य हो जाए तो भी ग्रह दूरस्थ नीहारिकाओं की अपेक्षा से गतिशील ही मिलेंगे । आकाश में इस प्रकार यदि हम १. परमाणु पोग्गलेणं भन्ते ! सासए, असासए ? गोयमा ! सिय सासए सिय प्रसासए । से केण ठेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ सिय सासए, सिय असासए ? गोयमा ! दबठयाए सासर वण्ण पंचमेहिं जाव फासबज्जवेहिं असासर से तेरण ठेणं जाव सिय सासए। --भगवती शतक १४-३४ । २. जीवाणं भन्ते ! किं सासवा असासया ? गोयमा ! जीव सिय सासया सिय असासया। से केण ठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ जीवा सिय सासया सिय प्रसासया ! गोयमा ? दवठयाए सासया भावठयाए असासया। -भगवती श० ७ उ० २ । 3. Nature is such that it is impossible to determine absolute motion by any experiment whatever. -Mysterious Universe, p. 78. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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