________________
धर्म-द्रव्य और ईथर
१४१
यह विचारधारा कब बन्द हुई . आजकल यह माना जा चुका है कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है । अभौतिक होने के कारण उसकी प्रकृति बिल्कुल भिन्न है....पिण्डत्व और घनत्व के गुण हमें जो भूत में मिलते है, स्वभावतः उनका ईथर में प्रभाव होगा परन्तु उसके अपने ही नये और निश्चयात्मक गुण होंगे..... ईथर का अभौतिक समुद्र ।"
धर्म-द्रव्य और ईथर का तुलनात्मक विवेचन करते हुए प्रोफेसर जी० आर० जैन एम. एस-सी. "नतन और प्राक्तन सृष्टि विज्ञान" नामक पुस्तक के ३१वें पृष्ठ पर लिखते हैं -“यह प्रमाणित हो गया कि जैन दर्शनकार व आधुनिक वैज्ञानिक यहाँ तक एक हैं कि धर्म-द्रव्य या ईथर अभौतिक, अपारमाणविक, अविभाज्य अखण्ड,
आकाश के समान व्याप्त, अरूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है।"
प्रसिद्ध गरिणतज्ञ प्रो० अलबर्ट आइंसटीन लोक और अलोक की भेद-रेखा बताते हुए लिखते हैं.-"लोक परिमित है, अलोक अपरिमित । लोक के परिमित होने के कारण द्रव्य अथवा शक्ति.लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का (द्रव्य का) अभाव है, जो गति में सहायक होती है।"
धर्म-द्रव्य के साथ कितना समन्वयपूर्ण विवेचन है। अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि हम अत्यन्त सूक्ष्मता में न जाते हुए यह कहें-धर्म-द्रव्य है वही ईथर है और ईथर है वही धर्म-द्रव्य ।
एक उपसंहारात्मक दृष्टि धर्म-द्रव्य और ईथर का यह तुलनात्मक विवेचन दर्शन और विज्ञान के विविध सम्बन्धों पर गहरा प्रकाश डालता है और दर्शन व विज्ञान को लेकर आज की कुछ बद्धमूल धारणामों में ठोस परिवर्तन लाता है।
एक विचारधारा जिसके अनुसार माना जाता था कि ज्ञान सब कुछ है, दर्शन कुछ नहीं; वह तो केवल आदिम पीढ़ी के मनुष्यों के अविकसित दिमागों की उपज है, शेष हो जाती है। आज के सहस्रों वर्ष पूर्व जब कि तथारूप विज्ञान का अंकुर भी न फूटा था, दार्शनिकों ने सष्टि के इस सूक्ष्मतर तत्त्व का किस प्रामाणिकता के साथ निरूपण कर दिया। ज्ञान के उसी सोपान पर विज्ञान आज भी लड़खड़ाता-सा पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है ।
1. Thus it is proved that science and Jain physics agree absolutely so far as they call Dharm (ether) non-material, non-atomic, non-discrete, continuous, co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for motion and one which does not itself move.
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org