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जैन दर्शन और माधुनिक विज्ञान भी शुद्ध रूप में प्रदर्शित करता है—यहाँ देने लायक हैं, “कमीशन की इस रिपोर्ट पर हम क्या टीका-टिप्पणी करें? इस बात पर जो प्रत्यक्ष रूप से झूठी है, जो नितान्त असम्भव है, यह सच्ची गवाही पढ़कर जो विचार उठते हैं उसका निर्णय करना हम विज्ञ पाठकों के हाथों में छोड़ देते हैं।"
परन्तु इन वैज्ञानिकों का निर्णय सुना-अनसुना करके पत्थर फिर गिरे और जहाँ तहाँ गिरते ही रहे । अन्त में १८०३ में फ्रांस के एक ग्राम पर पूरी बौछार पड़ी । तब वैज्ञानिक एकेडमी का पहले वाला दृढ़ विश्वास हिल गया और अन्त में प्रसिद्ध वैज्ञानिक बायो (Biot) इस बात की जाँच के लिए भेजा गया। उसने सिद्ध किया कि पत्थर वस्तुतः गिरते हैं और वे आकाश ही से आते हैं। तब से इन उल्का-प्रस्तरों के विषय में हमारा ज्ञान बढ़ता ही गया।
कभी कभी एक स्थान में, एक ही समय में अनेकों उल्का-प्रस्तर गिरते हैं। सन् १८३० में फ्रांस के एक स्थान में दो तीन हजार पत्थर गिरे । वहाँ के निवासी व्याकुल हो गये । पोलैण्ड के पुल्टुस्क नगर में एक बार १०,०००० पत्थर गिरे थे
और हंगरी में भी एक बार इसी प्रकार वर्षा हुई थी । अभी हाल में अरिजोना (Arizona.) में १६ जुलाई १९१२ को १४००० पत्थर गिरे थे । कभी कभी तो उल्काएँ वायुमण्डल में टूटकर टुकड़े टुकड़े हो जाती हैं परन्तु अधिकतर वे हमारे वायुमण्डल में घुसने के पहले ही टुकड़े टुकड़े हुई रहती हैं । यह बात इन टुकड़ों के आकार से जान पड़ती है । पृथ्वी के पास आकर टूटे हुए टुकड़े अधिक कौर दार होते हैं । फिर कोई कोई उल्कायें चन्द्रमा जैसी बड़ी जान पड़ती हैं जिससे पता चलता है कि वस्तुतः उनके कभी टुकड़े होते होंगे और सबों के साथ ही जलने से हमें एक ही बहुत बड़ी उल्का दिखलायी पड़ती है। बिजली के तड़पने ऐसी जो कड़क सुनाई देती है वह साधारणतः उल्काओं के टूटने की आवाज नहीं रहती । उनके बहुत गर्म हो जाने से और उनमें अत्यन्त वेग होने के कारण यह आवाज उत्पन्न होती है क्योंकि उल्का-प्रस्तरों के गिरने में बहुत कम समय लगता है।"
उल्कापात का विषय इस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में बहुत दिनों तक असम्भव माना जाता रहा, और जब यह विषय सम्भव मान लिया गया तब से तो उल्कापात की बड़ी बड़ी घटनाओं का एक समुचित इतिहास बन गया है।
. इस प्रकार के और भी अनेकों उदाहरण है जो कि विज्ञान की परिवर्तनशीलता को व्यक्त करते हैं । विज्ञान जिस अहम् से दर्शन को एक दुर्बल मस्तिष्क की उपज मानकर आगे बढ़ा था, प्रकृति ने उस अहम को अधिक दिन नहीं जीने दिया। आज विज्ञान अपने समस्त निर्णयों में स्वयं सन्देहशील है । प्रकृति के नये रहस्यों को ज्यों ज्यों वह अपने हाथों खोलता जाता है, अपना अज्ञान कितना बड़ा है यह
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