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जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान वैज्ञानिक विश्व की उक्त मान्यताओं तक कि पृथ्वी सूर्य का टुकड़ा है, पृथ्वी का अपना टुकड़ा चाँद है—आदि का परिचय पाकर विचारक निस्सन्देह इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि पृथ्वी की उत्पत्ति व विनाश आदि के सम्बन्ध में जैन आगम व जैन दर्शन का अभिमत ही बहुत प्रकार से तर्क व बुद्धिसंगत है। वहाँ माना गया है कि विश्व की अनेक पथ्वियों में से हमारी यह पृथ्वी (तिर्यग्लोक) एक है। इससे ऊपर भी अनन्त आकाश में पृथक्-पृथक् अनेक पृथ्वियाँ (उर्ध्वलोक) हैं और नीचे भी पृथक्-पृथक् अनेक पृथ्वियाँ हैं । इस प्रकार यह चतुर्दश रज्ज्वात्मक समस्त विश्व है । यह शाश्वत है और अनेक द्वीपात्मक व अनेक समुद्रात्मक यह अपनी पृथ्वी भी उसकी एक शाश्वत इकाई है । सरांश यह हुअा कि यह पृथ्वी न कभी बनी और न कभी इसका अन्त है । न सूर्य से यह टूटी है और न चन्द्रमा ही इससे अलग हुआ है। बन्दर व मनु य भी इसके अनादिकालीन वासी हैं। दार्शनिक जगत् में जहाँ एक विचार है कि थ्वी की रचना ईश्वर ने की; अनादि और अनन्त का समाधान वहाँ भी श्रेष्ठतर रहा; क्योंकि कर्तृत्ववाद यहाँ चुप रहता है कि यदि इस पृथ्वी को बनाने वाला कोई है तो उसने यह कब क्यों और कैसे बनाई ? ये प्रश्न इतने गहरे उतरते थे कि वहाँ अन्त में अनवस्था, उपादान, हानि आदि प्रसंग पैदा हो जाते थे। वैज्ञानिक युग में कर्तृत्ववाद का विचार और भी मन्द होता गया। वहाँ भत (Matter) की स्वयं परिणति अभीष्ट हुई । सूर्य, चन्द्र, तारा पृथ्वी ग्रादि प्रकृति की स्वाभाविक परिणतियों से बनते व बिगड़ते हैं । इनका उपादान पदार्थ' (Matter) शाश्वत है । विज्ञान भी प्रकृति के पृथ्वी आदि कुछ संस्थानों को उस आकार प्रकार में ही शाश्वत मान लेता पर उसकी समझ में यह नहीं पा रहा है कि अणु-निर्मित कोई संस्थान शाश्वत कैसे रह सकता है। संघटन और विघटन प्रकृति का दैनंदिन धर्म है। जैन दर्शन का अभिमत इस समस्या को भी सुलझाकर चलता है । उसका विश्वास है, संघटन और विघटन यद्यपि भौतिक विश्व के कुछ ऐसे प्रतीक हैं जो स्वसंस्थान में रहते हुए भी अपने आप में संघटन और विघटन की क्रिया करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में वह प्रक्रिया प्राकृतिक नियमों से होती रहती है। उन संस्थानों से विघटन पर्याय को प्राप्त परमाणु प्रति समय (काल का सूक्ष्मतम भाग) दूर होते रहते हैं; और संघटन पर्याय के योग्य दूसरे असंख्य परमाणु उनमें संयुक्त होते रहते हैं। एक सुदीर्घ अवधि के पश्चात् एक-एक करके उस संस्थान के सारे परमाणु बदल जायेंगे पर सामान्य दृष्टि में वह संस्थान (इकाई) ज्यों का त्यों खड़ा रहेगा। प्रकृति के इस कार्य को हम एक मकान व एक गाँव के उदाहरण से कुछ और स्पष्ट समझ सकते हैं। मकान मालिक व उसके वंशज अपने मकान में टूट साँध करते जाते हैं। धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आता है कि लगभग सारा मकान दूसरा हो जाता है, पर लोगों की दृष्टि में वह वही मकान है जो
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