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________________ जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान वैज्ञानिक जगत् में दूसरा महा आविष्कार प्रो० प्राईस्टीन का सुप्रसिद्ध सिद्धान्त सापेक्षवाद (Theory of Relativity) माना जाता है। कहना चाहिये कि इस सिद्धान्त ने तात्कालिक विज्ञान का कायापलट ही कर दिया। इसने ईथर, गुरुत्वाकर्षण आदि की चिरप्रचलित मान्यताओं को चुनौती देकर हर एक तथ्य को अपेक्षा दृष्टि से परखने की यथार्थता दी। तीसरी विस्मयोत्पादक घटना वैज्ञानिकों के सामने परमाणु विभाजन की हुई। इससे उन्हें पता चला कि जिसे हम परम-अणु अर्थात् अन्तिम इकाई माने बैठे थे, उस तथाकथित परमाणु में ऋणाणु (Electron) व धनाणुओं (Patron) का गतिशील सौर परिवार अवस्थित है। अस्तु, इन महान् अप्रत्याशित परिवर्तनों के सामने आते ही वैज्ञानिकों को ऐसा लगा “विज्ञान अभी तक परम वास्तविकता से बहुत परे है ।" इतना ही नहीं, उन्होंने माना कि इस सदी का सर्वोत्कृष्ट प्राविष्कार ही यही है कि "अभी तक हम चरम सत्य के समीप नहीं हैं।" "पदार्थ वैसे नहीं हैं जैसे हम देखते हैं।" सच बात तो यह है कि विज्ञान की इस करवट में वैज्ञानिकों का गर्व चूर-चूर हो गया। उन्हें अपनी अल्पज्ञता सामने दीखने लगी। किसी विराट् ज्ञाता का ख्याल होने लगा। प्राईस्टीन के शब्दों में कहें तो "हम केवल सापेक्ष सत्य को ही जान सकते है, पूर्ण सत्य तो कोई सर्वज्ञ ही जान सकता है ।" अब देखना यह है कि इन मौलिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप आत्मा सम्बन्धी धारणाओं में क्या नया उन्मेष हुआ। प्रचलित विज्ञान के दो पहलू है ---प्रायोगिक (Practical) व वैचारिक (Theoretical)! ' प्रायोगिक विज्ञान इस दिशा का विषय नहीं बन सकता। हालांकि प्रयोग के आधार पर नवीन जीव विज्ञान की सृष्टि हुई है, किन्तु उसको हमें शरीर विज्ञान का ही दूसरा पहलू समझना चाहिये । थियोरेटिकल साइंस में वैज्ञानिक इस दिशा में जहाँ तक पहुंचे हैं, वह अवश्य मनन का विषय है। चतन्य जैसे तत्त्व का श्रीगणेश कैसे हुआ ? यह वैज्ञानिकों के सामने प्रमुख प्रश्न था । नाना समाधान सोचे गये, पर वे सारे निष्कर्ष इस बात की ओर संकेत करते थे कि चेतना अकस्मात् किसी संयोग से पैदा हो गई हो या अकस्मात् किसी अन्य आकाशीय पिण्ड से टपक पड़ी हो, ऐसी बात नहीं है किन्तु अब वैज्ञा 1. Science is not in contact with ultimate reality. -Mysterious Universe, p-111, 2. We are not yet in contact with ultimate reality. 3. Things are not what they seem. 4. We can only know the relative truth, but absolute truth to known only to the universal observer. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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