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________________ (६) श्री आचाराङ्गनियुक्तिः ] [ ४४५ अहियासित्तवसग्गे दिवे माणस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माइं भावधुयं तं वियाणाहि ।। २५२ ।। ॥प्रथम उद्देशकः ॥६-१॥ ॥ ८ ॥ अथ विमोक्षाख्याष्टमाध्ययननियुक्तिः ॥ ॥८-१॥ अथाष्टमाध्ययनप्रथमोद्देशकः ॥ असमणुन्नस्स विमुक्खो पढमे बिइए अकप्पियविमुक्खो। पडिसेहणा य रुटस्त चेव सब्भावकहणा य ॥ २५३ ।। तइयंमि अंगचिट्ठाभासियं आसंकिए य कहणा य । सेसेसु अहीगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु ॥ ५४ ।। 10 उद्देसंमि चउत्थे बेहाणसगिद्धपिट्ठमरणं च । पंचमए गेलन्नं भत्तपरिना य बोद्धव्वा ।। ५५ ।। छट्ठमि उ एगत्तं इंगिणिमरणं च होइ बोद्धव्वं । सत्तमए पडिमानो पायवगमणं च नायव्वं ।। ५६ ।। अणुपुग्विविहारीणं भत्तपरिन्ना य इंगिणीमरणं । पायवगमणं च तहा अहिगारो होइ अट्ठमए ।। ५७ ॥ नामंठवणविमुक्खो दवे खित्ते य काल भावे य ।। एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छविहो होइ ।। ५८ ।। दम्वविमुक्खो नियलाइएसु खित्तंमि चारयाईसु। काले चेइयमहिमाइएसु प्रणघायमाईप्रो ॥५६ ।। 20 दुविहो भावविमुक्नो देसविमुक्खो य सवमुक्खो य । देसविमुक्खा साहू सम्वविमुक्खा भवे सिद्धा ।। २६० ।। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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