________________
(३) श्रीपिण्डनियुक्तिः ]
[ २९५
पामिच्चपि य दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेण । लोइय सभिलगाई लोगुत्तर वत्थमाईसु ।। १६ ।। सुयअभिगमनाय विही बहि पुच्छा एग जीवइ ससा ते ।
पविसण पाग निवारण उच्छिदण तेल्ल जइदाणं ।। १७ ।। 5 अपरिमियनेहवुड्डी दासत्तं सो य आगओ पुच्छा।
दासत्तकहण मा रुय अचिरा मोएमि एत्ताहे ।। १८ ॥ भिक्ख दगसमारंभे कहणाउट्टो कहिं ति वसहित्ति । संवेया आहरणं विसज्ज कहणा कइवया उ ।। १६ ।।
एए चेव य दोसा सविसेसयरा उ वत्थपाएसु। 10 लोइयपामिच्चेसु लोगुत्तरिया इमे अन्ने ॥३२० ।।
मइलिय फालिय खोसिय हियन? बावि अन्न मग्गंते । अवि सुदरेवि दिण्णे दुक्कररोई कलहमाई ॥ २१ ।। उच्चत्ताए दाणं दुल्लभ खग्गूड अलस पामिच्चे ।
तंपि य गुरुस्स पासे ठवेइ सो देइ मा कलहो ॥ २२ ॥ 15 परियट्टियंपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं ।
एक्केक्कंपि अ दुविहं तद्दध्वे अन्नदवे य ।। २३ ।। अवरोप्पर-सज्झिलगा संजुत्ता दोवि अन्नमन्नेणं । पोग्गलिय संजयहा परियट्टण संखडे बोही ।। २४ ॥ अणुकंप भगिणिगेहे दरिद्द परियट्टणा य कूरस्स । पुच्छा कोद्दवकूरे मच्छर णाइक्ख पंतावे ।। २५ ।। इयरोऽविय पंतावे निसि प्रोस वियाण तेसि दिक्खा य । तम्हा उ न घेत्तव्वं कइ वा जे ओसमेहिति ? ।। २६ ।।
am
20
Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org