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(३) श्रीपिण्डनियुक्तिः ]
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उद्देसियं समुद्देसियं च प्राएसियं समाएसं। एवं कडे य कम्मे एक्के क्कि चउपकओ मेओ ॥ २६ ॥ जावंतियमुद्देसं पासंडीणं भवे समुद्देसं ।
समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ॥ २३० ॥ 5 छिन्नमछिन्नं दुविहं दवे खेत्ते य काल भावे य । निष्फाइयनिष्फन्नं नायव्वं जं जहिं कमइ ।। ३१ ।। मत्तुवरियं खलु संखडीएँ तद्दिवसमन्नदिवसे वा। अंतो बहिं च सव्वं सम्वदिणं देहि प्रच्छिन्नं ॥ ३२ ॥
देहि इमं मा सेसं अंतो बाहिरग्गयं व एगयरं । 10 जाव प्रमुगत्तिवेला अमुगं वेलं च प्रारब्भ ।। ३३ ।।
दव्वाईछिन्नपि हु जइ भणई प्रारओऽवि मा देह । तो कप्पइ छिन्नपि हु अच्छिन्नकडं परिहरंति ।। ३४ ।। अमुगाणंति व दिज्जउ अमुकाणं मति एत्थ उ विभासा ।
जत्थ जईण विसिट्टो निद्देसो तं परिहरंति ॥ ३५ ।। 15 संदिस्संतं जो सुणइ कप्पए तस्स सेसए ठवणा।
संकलिय साहणं वा करेंति असुए इमा मेरा ।। ३६ ॥ मा एयं देहि इमं पुढे सिट्ठमि तं परिहरति । जं दिन्नं तं दिन्नं मा संपइ देहि गेण्हति ।। ३७ ॥
रसभायणहेउं वा मा कुच्छिहिई सुहं व दाहामि । 20 दहिमाई आयतं करेइ कूरं कडं एयं ।। ३८ ।।
मा काहंति अवण्णं परिकलियं व दिज्जइ सुहं तु । वियडेण फाणिएण व निद्रेण समं तु बट्टति ।। ३६ ॥
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