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________________ १८८ ] [ नियुक्तिसंग्रहः :: (१) आवश्यकनियुक्तिः आयंबिलमणायंबिल चउथा(द्धा) बालवुड्डसहुअसहू । अहिंडियहिंडियए पाहुणयनिमंतणाऽऽवलिया ।। २४ ।। विहिगहियं विहिभुत्तं उव्वरियं जं भवे असणमाई । तं गुरुणाऽणुनायं कप्पइ आयंबिलाईणं ॥ 5 विहिगहिनं विहिभुत्तं तह गुरूहि जं भवे अणुनायं । ताहे वंदणपुव्वं भुजा से संदिसायेउं ।। २५ ।। चउरो य हुँति भंगा पढमे भंगंमि होइ प्रावलिया। इत्तो अ तइयभंगो आवलिया होइ नायव्वा ॥२६ ।। पच्चक्खाएण कया पच्चक्खावितएवि सूआए (उ)। 10 उभयवि जाणगोयर चउभंगे गोणिदिळंतो ।। २७ ।। मूलगुणउत्तरगुणे सन्वे देसे य तह य सुद्धीए।। पच्चक्खाणविहिन्नू पच्चक्खाया गुरू होइ ।। २८ ।। किइकम्माइविहिन्न उवओगपरो अ असढभावो अ । संविग्गथिरपइन्नो पच्चक्खावितओ भणिओ ॥ २९ ।। 15 इत्थं पुण चउभंगो (गो) जाणगइअरंमि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अ विभासा ॥ १६३० ।। दवे भावे 4 दुहा पच्चक्खायवयं हवइ दुविहं ! । दव्वंमि प्र असणाई अनाणाई य भावंमि ॥ ३१ ॥ सोउं उठ्ठियाए विणीयऽवक्खिसतदुवउत्ताए । 20 एवंविहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयव्वं ॥ ३२ ॥ आणागिज्झो अत्थो प्राणाए चेव सो कहेयव्यो। दिळंति उ दिळंता कहणविहि विराहणा इयरा । ३३ ।। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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