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५-कायोत्सर्गाध्ययनम् :: ११-कायोत्सर्गनियुक्तिः]
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अगणीओ छिदिज्ज व बोहियखोभाइ दीहडक्को वा। आगारेहि प्रभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ॥१५३० ॥ ते पुण ससूरिए चिय पासवणुच्चारकालभूमीग्रो ।
पेहित्ता अस्थमिए ठंतुसग्गं सए ठाणे ॥३१॥ 5 जइ पुण निवाघाए आवासं तो करिति सम्वेवि ।
सड्ढाइकहरणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ।। ३२ ।। सेसा उ जहात्ति प्रापुच्छित्ताण ठंति सट्टाणे। सुत्तत्थसरणहेउं प्रायरिए ठियंमि देवसियं ॥ ३३ ।।
जो हुज्ज उ असमत्थो बालो वुड्डो गिलाण परितंतो। 10 सो विकहाइविरहिओ झाइज्जा जा गुरू ठति ॥ ३४ ।।
जा देवसिअं दगुणं चितइ गुरू अहिउओऽचिट्ठ । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चितंति ॥ १५३५ ।। पव्व इयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू बहुं बहुविहो ।
कालेणं तदुचिएणं पारेइ थोवचिट्ठोऽवि ।।१॥(प्र.) 15 नमुक्कार चउवीसग किहकम्मालोअणं पडिक्कमणं ।
किइकम्म दुरालोइअ दुप्पडिक्कते य उस्सग्गो ।। ३६ ।। एस चरित्तुस्सग्गो दंसणसुद्धोइ तइयओ होइ । सुयनाणस्स चउत्थो सिद्धाण थुई अ किइकम्मं ।। ३७ ।।
सव्वलोए अरिहंतचेइआणं, करेमि काउस्सग्गं ॥१॥ 20 बंदणवत्तिआए, पूअण-वत्तिआए, सकार-वत्तिआए,
सम्माण-वत्तिआए, बोहिलाभ-वत्तिआए, निरुवसग्ग
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