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________________ ५-कायोत्सर्गाध्ययनम् :: ११-कायोत्सर्गनियुक्तिः] [ १७१ अगणीओ छिदिज्ज व बोहियखोभाइ दीहडक्को वा। आगारेहि प्रभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ॥१५३० ॥ ते पुण ससूरिए चिय पासवणुच्चारकालभूमीग्रो । पेहित्ता अस्थमिए ठंतुसग्गं सए ठाणे ॥३१॥ 5 जइ पुण निवाघाए आवासं तो करिति सम्वेवि । सड्ढाइकहरणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ।। ३२ ।। सेसा उ जहात्ति प्रापुच्छित्ताण ठंति सट्टाणे। सुत्तत्थसरणहेउं प्रायरिए ठियंमि देवसियं ॥ ३३ ।। जो हुज्ज उ असमत्थो बालो वुड्डो गिलाण परितंतो। 10 सो विकहाइविरहिओ झाइज्जा जा गुरू ठति ॥ ३४ ।। जा देवसिअं दगुणं चितइ गुरू अहिउओऽचिट्ठ । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चितंति ॥ १५३५ ।। पव्व इयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू बहुं बहुविहो । कालेणं तदुचिएणं पारेइ थोवचिट्ठोऽवि ।।१॥(प्र.) 15 नमुक्कार चउवीसग किहकम्मालोअणं पडिक्कमणं । किइकम्म दुरालोइअ दुप्पडिक्कते य उस्सग्गो ।। ३६ ।। एस चरित्तुस्सग्गो दंसणसुद्धोइ तइयओ होइ । सुयनाणस्स चउत्थो सिद्धाण थुई अ किइकम्मं ।। ३७ ।। सव्वलोए अरिहंतचेइआणं, करेमि काउस्सग्गं ॥१॥ 20 बंदणवत्तिआए, पूअण-वत्तिआए, सकार-वत्तिआए, सम्माण-वत्तिआए, बोहिलाभ-वत्तिआए, निरुवसग्ग Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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